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________________ सामिष-निरामिष-आहार का परिशिष्ट नरक में जाना भयप्रद नहीं है पर हीनयान में प्रवेश करना अवश्य भयप्रद है । नागार्जुन के अनुगामी स्थिरमति ( ई० सन् २००-३०० के बीच) ने अपने 'महायानावतारक शास्त्र' में लिखा है कि जो महायान की निन्दा करता है वह पापभागी व नरकगामी होता है । वसुबन्धु ने (चौथी शताब्दी) अपने 'बोधि-चित्तोत्पादन-शास्त्र' में लिखा है कि जो महायान के तत्त्व में दोष देखता है वह चार में से एक महान् अपराधपाप करता है और जो महायान के ऊपर श्रद्धा रखता है वह चारों विघ्नों को पार करता है। ऊपर जो बौद्ध हीनयान-महायान जैसे फिरकों के बीच हुई मानसिककटुता का उल्लेख हमने किया है वह जैन फिरकों के बीच हुई वैसी ही मानसिक कटुता के साथ तुलनीय है । जब समय, स्थान और वातावरण की समानता का ऐतिहासक दृष्टि से विचार करते हैं तब जान पड़ता है कि धर्म विषयक मानसिक कटुता एक चेपी रोग की तरह फैली हुई थी। - १-चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र में हुई वाचना के समय जैन संघ में पूर्ण ऐकमत्य का अभाव, बौद्ध वैशाली संगीति की याद दिलाता है। २-ई० सन् दूसरी शताब्दी के अंत में श्वेताम्बर-दिगम्बर फिरकों का पारस्परिक अन्तर इतना हो गया कि एक ने दूसरे को 'निह्नव' तो दूसरे ने पहले को 'जैनाभास' तक कह डाला। यह घटना हमें स्थविरवादी और महासंघिकों के बीच होने वाली परस्पर भर्त्सना की याद दिलाती है जिसमें एक ने दूसरे को अधर्मवादी तथा दूसरे ने पहले को हीनयानी कहा । ३-हमने पहले ( पृ० ६१ में) जिस श्रुतावर्णवाद-दोष के लाञ्छन का निर्देश किया है वह हमें ऊपर सूचित स्थिरमति और वसुबन्धु आदि के द्वारा हीनयानियों के ऊपर किये गए तीव्र प्रहारों की याद दिलाता है। ... ' विशेष विवरण के लिए देखिए A Historical study of the terms Hinayana and Mahayana Buddhism: By Prof. Ryukan Kimura, Published by Calcutta University Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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