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जैन धर्म और दर्शन सूत्र आदि में देखते हैं कि जहाँ अष्टका श्राद्ध,२२ शूलगव कर्म२ 3 और अन्त्येष्टि संस्कार का२४ वर्णन है वहाँ गाय, बकरा जैसे पशुओं के माँस-चर्बी आदि द्रव्य से क्रिया सम्पन्न करने का निःसंदेह विधान है। कहना न होगा कि ऐसे माँसादि प्रधान यज्ञ और संस्कार उस समय की याद दिलाते हैं जब कि क्षत्रिय और वैश्य के ही नहीं बल्कि ब्राह्मण तक के जीवन-व्यवहार में माँस का उपयोग साधारण वस्तु थी पर आगे जाकर स्थिति बदल जाती है।
वैदिक-परम्परा में ही एक ऐसा प्रबल पक्ष पैदा हुआ जिसने यज्ञ तथा श्राद्ध श्रादि कर्मों में धर्म्य रूप से अनिवार्य मानी जाने वाली हिंसा का जोरों से प्रतिवाद शुरू किया। श्रमण जैसी अवैदिक परंपराएँ तो हिंसक याग-संस्कार आदि का प्रबल विरोध करती ही थीं पर जब घर में ही आग लगी तब वैदिक परम्परा की पुरानी शास्त्रीय मान्यताओं की जड़ हिल गई और वैदिक परम्परा में दो पक्ष पड़ गए । एक पक्ष ने धर्म्य माने जाने वाले हिंसक याग-संस्कार आदि का पुराने शास्त्रीय वाक्यों के आधार पर ही समर्थन जारी रखा जब कि दूसरे पक्ष ने उन्हीं वाक्यों का या तो अर्थ बदल दिया या अर्थ बिना बदले ही कह दिया कि ऐसे हिंसा-प्रधान याग तथा संस्कार कलियुग में वयं हैं। इन दोनों पक्षों की दलील. बाजी एवं विचारसरणी की बोधप्रद तथा मनोरंजक कुश्ती हमें महाभारत में जगहजगह देखने को मिलती है।
अनुशासन२५ और अश्वमेधीय२६ पर्व इसके लिए खास देखने योग्य हैं। महाभारत के अलावा मत्स्य २७ और भागवत२८ आदि पुराण भी हिंसक याग विरोधी वैदिक पक्ष की विजय की साक्षी देते हैं। कलियुग में वयं वस्तुओं का वर्णन करने वाले अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें से आदित्यपुराण,२६ बृहन्नारदीय
२२-काएड ३, अ०८-६; २३-काण्ड ६ प्रपाठक ३ २४-काण्ड ३, ४-८ २५-अनुशासन पर्व-११७ श्लो० २३
२६-अश्वमेधीय पर्व-अ०६१ से ६५; नकुलाख्यान अ०६४ अगस्त्यकृतबीजमय यज्ञ
२७-मत्स्य-पुराण श्लो० १२१ २-भागवत-पुराण-स्कंध ७, अ० १५, श्लो० ७-११ २६-आदित्य पुराण जैसा कि हेमाद्रि ने उद्धृत किया है
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