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सामिष-निरामिषाहार बुद्धघोष आदि लेखकों ने जिन अनेक अर्थों की अपने अपने ग्रन्थों में, नोंध की है और जो एक अजीब अर्थ उस पुराने चीनी ग्रन्थ में भी मिलता है यह सब केवल उस समय की ही कल्पनासृष्टि नहीं है पर जान पड़ता है कि बुद्धघोष
आदि के पहले ही कई शताब्दियों से बौद्ध-परम्परा में बुद्ध ने सूकर-माँस खाया था या नहीं, इस मुद्दे पर प्रबल मतभेद हो गया था और जुदे-जुदे व्याख्याकार अपनी-अपनी कल्पना से अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते थे । बुद्धघोष आदि ने तो उन्हीं सब पक्षों की यादी भर की है।
बौद्ध परम्परा के ऊपरसूचित दोनों पक्षों का लम्बा इतिहास बौद्ध वाङ्गमय में है। हम तो यहाँ प्रस्तुतोपयोगी कुछ संकेत करना ही उचित समझते हैं। पालिपिटकों पर मदार रखनेवाला बौद्ध-पक्ष स्थविरवाद कहलाता है जब कि पालि. पिटकों के ऊपर से बने संस्कृत पिटकों के ऊपर मदार बाँधनेवाला पक्ष महायान कहलाता है' । महायान-परम्परा का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है लंकावतार जो ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में कभी रचा गया है । लंकावतार के आठवें 'मांस भक्षण परिवर्त' नामक प्रकरण में महामति बोधिसत्त्व ने बुद्ध के प्रति प्रश्न किया है कि आप मांसभक्षण के गुणदोष का निरूपण कीजिए। बहुत लोग बुद्धशासन पर आक्षेप करते हैं कि बुद्ध ने बौद्ध भित्तुकों के लिए माँस-ग्रहण की अनुशा दी है. और खुद ने भी माँस भक्षण किया है । भविष्यत् में हम कैसा उपदेश करें यह आप कहिए । इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने उस बोधिसत्त्व को कहा है कि भला, सब प्राणियों में मैत्री-भावना रखनेवाला मैं किस प्रकार माँस खाने की अनुज्ञा दे सकता हूँ और खुद भी खा सकता हूँ ? अलबत्ता भविष्य में ऐसे माँसलोलुप कुतकवादी होंगे जो मुझ पर झूठा लाञ्छन लगाकर अपनी माँसलोलुपता को तृप्ति करेंगे और विनय-पिटक के कल्पित अर्थ करके लोगों को भ्रम में डालेंगे। मैं तो सर्वथा सब प्रकार के माँस का त्याग करने को ही कहता हूँ। इस मतलब का जो उपदेश लंकावतारकार ने बुद्ध के मुख से कराया है वह इतना अधिक युक्तिपूर्ण
और मनोरंजक है कि जिसको पढ़कर कोई भी अभ्यासी सहज ही में यह जान सकता है कि महायान-परम्परा में माँस-भोजन विरुद्ध कैसा प्रबल आन्दोलन शुरू हुआ था और उसके सामने दूसरा पक्ष कितने बल से विनय-पिटकादि शास्त्रों के आधार पर माँस-ग्रहण का समर्थन करता था ।
करीब ई० सन् छठी शताब्दी में शान्तिदेव नामक बौद्ध विद्वान् हुए, जो महायान-परम्परा के ही अनुगामी थे। उन्होंने 'शिक्षा-समुच्चय' नामक अपने ग्रन्थ में माँस के लेने-न-लेने की शास्त्रीय चर्चा की है। उनके सामने माँस-ग्रहण
१ देखिए अन्त में परिशिष्ट
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