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सामिष-निरामिष-आहार बौद्ध-परम्परा में माँस के ग्रहण-अग्रहण का ऊहापोह । ___ जैन-परम्परा अहिंसा-सिद्धान्त का अन्तिम हद तक समर्थन करने वाली है इसलिए उसके प्रमाणभूत ग्रन्थों में कहीं भी भिक्षुओं के द्वारा मांस-मत्स्यादि के लिये जाने की थोड़ी सी बात आ जाए तो उस परम्परा की अहिंसा भावना के विरुद्ध होने के कारण उससे परम्परा में मतभेद या क्षोभ हो जाए तो यह कोई अचरज की बात नहीं है । पर अचरज की बात तो यह है कि जिस परम्परा में अहिंसा के आचरण का मर्यादित विधान है और जिसके अनुयायी आज भी मांसमत्स्यादि का ग्रहण ही नहीं बल्कि समर्थन भी करते हैं उस बौद्ध तथा वैदिक परम्परा के शास्त्रों में भी अमुक सूत्र तथा वाक्य मांस-मत्स्यादिपरक हैं या नहीं इस मुद्दे पर गरमा-गरम चर्चा प्राचीन काल से आज तक चली आती है।
बौद्ध-पिटकों में जहाँ बुद्ध के निर्वाण की चर्चा है वहाँ कहा गया है कि चन्द नामक एक व्यक्ति ने बुद्ध को भिक्षा में सूकर-मांस दिया था ६ जिसके खाने से बुद्ध को उग्र शूल पैदा हुआ और वही मृत्यु का कारण हुआ। बौद्ध-पिटकों में अनेक जगह ऐसा वर्णन आता है जिससे असंदिग्ध रूप से माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु अपने निमित्त से मारे नहीं गए ऐसे पशु का मांस ग्रहण करते थे२० । जब बुद्ध की मौजूदगी में उन्हीं का भित्तुसंघ मांस-मत्स्यादि ग्रहण करता था तब चुन्द के द्वारा बुद्ध को दी गई सूकर-मांस की भिक्षा के अर्थ के बारे में मतभेद या खींचातानी क्यों हुई ? यह एक समस्या है।
बुद्ध की मृत्यु का कारण समझ कर कोई चुन्द को अपमानित या तिरस्कृत न करें इस उदात्त भावना से खुद बुद्ध ने ही चुन्द का बचाव किया है और संघ को कहा है कि कोई चुन्द को दूषित न मानें । बौद्ध पिटक के इस वर्णन से यह तो स्पष्ट ही है कि सूकर मांस जैसी गरिष्ठ वस्तु की भिक्षा देने के कारण बौद्ध-संघ चन्द का तिरस्कार करने पर उतारू था उसी को बुद्ध ने सावध किया है। जब बुद्ध की मौजूदगी में बौद्धभिक्षु मांस जैसी वस्तु ग्रहण करते थे और खुद बुद्ध के द्वारा भी चुन्द के उपरान्त उग्र गृहपति की दी हुई सूकर-मांस की भिक्षा लिये जाने का अंगुत्तरनिकाय पंचम निपात में साफ कथन है; तब बौद्ध परम्परा में आगे जाकर सकर-मांस अर्थ के सूचक सूत्र के अर्थ पर बौद्ध विद्वानों का मतभेद क्यों हुआ ? यह कम कुतूहल का विषय नहीं है ।
१६. दीघ० महापरिनिव्वाणसुत्त १६ २०. अंगुत्तर Vol II. P. 187 मज्झिमनिकाय सु० ५५ विनयपिटक-पृ०
२४५ (हिन्दी)
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