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जैन धर्म और दर्शन संघ के भीतर से भी आचार्यों के सामने प्रश्न आए । प्रश्नकर्ता स्वयं तो जन्म से निरामिष-भोजी ओर अहिंसा के प्रात्यन्तिक समर्थक थे पर वे पुराने शास्त्रों में से सामिष-भोजन का प्रसंग भी सुनते थे इसलिए उनके मनमें दुविधा पैदा होती थी कि जब हमारे आचार्य अहिंसा, संयम और तप का इतना उच्च आदर्श हमारे सामने रखते हैं तब इसके साथ पुराने निग्रन्थों के द्वारा सामिष-भोजन लिए जाने के शास्त्रीय वर्णन का मेल कैसे बैठ सकता है ? जब किसी तत्त्व का प्रात्यन्तिक आग्रहपूर्वक प्रचार किया जाता है तब विरोधी पक्षों की ओर से तथा अपने दल के भीतर से भी अनेक विरोधी प्रश्न उपस्थित होते ही हैं। पुराने निर्ग्रन्थ-प्राचार्यों के सामने भी यही स्थिति आई ।
उस स्थिति का समाधान बिना किए अब चारा नहीं था अतएव कुछ प्राचार्यों ने तो आमिषसूचक सूत्रों का अर्थ ही अपनी वर्तमान जीवन स्थिति के अनुकूल वनस्पति किया । पर कुछ निर्ग्रन्थ प्राचार्य ऐसे भी दृढ़ निकले कि उन्होंने ऐसे सूत्रों का अर्थ न बदल करके केवल वही बात कह दी जो इतिहास में कभी घटित हुई थी अर्थात् उन्होंने कह दिया कि ऐसे सूत्रों का अर्थ तो माँस-मत्स्यादि ही है पर उसका ग्रहण निर्ग्रन्थों के लिए औत्सर्गिक नहीं मात्र आपवादिक स्थिति है।
नया अर्थ करने वाला एक सम्प्रदाय और पुराना अर्थ मानने वाला दूसरा सम्प्रदाय -- ये दोनों परस्पर समाधान पूर्वक निर्ग्रन्थ-संघ में अमुक समय तक चलते रहे क्योंकि दोनों का उद्देश्य अपने अपने ढंग से निर्ग्रन्थों के स्थापित निरामिष भोजन का बचाव और पोषण ही करना था। जब आगमों के साथ व्याख्याएँ भी लिखी जाने लगी तब उन विवादास्पद सूत्रों के दोनों अर्थ भी लिख लिये गए जिससे दोनों अर्थ करने वालों में वैमनस्य न हो।
पर दुर्दैव से निग्रन्थ संघ के तख्ते पर नया ही ताण्डव होने वाला था। वह ऐसा कि दो दलों में वस्त्र न रखने और रखने के मुद्दे पर आत्यंतिक विरोध की नौबत आई। फलतः एक पक्ष ने आगमों को यह कहकर छोड़ दिया कि वे तो काल्पनिक हैं जब कि दूसरे पक्ष ने उन आगमों को ज्यों का त्यों मान लिया और उनमें आने वाले माँसादि-ग्रहण विषयक सूत्रों के वनस्पति और माँस-ऐसे दो अर्थों को भी मान्य रखा ।
हम ऊपर की चर्चा से नीचे लिखे परिणाम पर पहुंचते हैं :- १-निग्रन्थ-संघ की निर्माण-प्रक्रिया के जमाने में तथा अन्य प्रापवादिक प्रसंगों में निग्रन्थ भी सामिष आहार लेते थे जिसका पुराना अवशेष आगमों में रह गया है। .
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