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जैन धर्म और दर्शन
धर्मानुयायी भी हो। एक ही कुटुम्ब की ऐसी निरामिष-सामिष भोजन की मिश्रित व्यवस्था में भी निर्ग्रन्थों को भिक्षा के लिए जाना पड़ता था । आपवादिक स्थिति
इसके सिवाय कोई कोई साहसिक निर्ग्रन्थ प्रचारक नए-नए प्रदेश में अपना निरामिष भोजन का तथा श्रहिंसा प्रचार का ध्येय लेकर जाते थे जहाँ कि उनको पक्के अनुयायी मिलने के पहले मौजूदा खान-पान की व्यवस्था में से भिक्षा लेकर गुजर-बसर करना पड़ता था । कभी-कभी ऐसे भी रोगादि सङ्कट उपस्थिति होते थे जब कि सुवैद्यों की सलाह के अनुसार निर्ग्रन्थों को खान-पान में अपवाद मार्ग का भी अवलंबन करना पड़ता था । ये और इनके जैसी अनेक परिस्थितियाँ पुराने निर्ग्रन्थ-सङ्घ के इतिहास में वर्णित हैं । इन परिस्थितियों में निरामिष भोजन और हिंसा प्रचार के ध्येय का आत्यन्तिक ध्यान रखते हुए भी कभी-कभी निर्ग्रन्थ अपनी एषणीय और कल्प्य आहार की मर्यादा को सख्त रूप से पालते हुए माँस-मत्स्यादि का ग्रहण करते हों तो कोई अचरज की बात नहीं | हम जब आचारांग और दशवैकालिकादि आगमों के सामिष आहार - सूचक सूत्र' १७ देखते हैं और उन सूत्रों में वर्णित मर्यादाओं पर विचार करते हैं तब स्पष्ट प्रतीत होता है कि सामिष आहार का विधान बिलकुल अपवादिक और परिहार्य स्थिति का है ।
'अहिंसा - संयम- तप' का मुद्रालेख
ऊपर सूचित श्रापवादिक स्थिति का ठीक-ठीक समय और देश विषयक निर्णय करना सरल नहीं है फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि जब निर्ग्रन्थ संघ प्रधानतया बिहार में था और अंग वंग-कलिंग आदि में नए प्रचार के लिए जाने लगा था तब की यह स्थिति होनी चाहिए। क्योंकि उन दिनों में आज से भी कहीं अधिक सामिष भोजन उक्त प्रदेशों में प्रचलित था । कुछ भी हो पर एक बात तो निश्चित है कि निर्ग्रन्थ- संघ ने हिंसा-संयम-तप के मूल मुद्रालेख के आधार पर निरामिष भोजन और अन्य व्यसन त्याग के प्रचार कार्य में उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ता और सफल होता गया है । इस संघ ने अनेक सामिप्रभोजी राजों-महाराजों को तथा अनेक दूसरे क्षत्रियादि गणों को अपने संघ में मिलाकर धीरे-धीरे उनको निरामिष भोजन की ओर अग्रसर किया है। संघ निर्माण की यह प्रक्रिया पिछली शताब्दियों में बिलकुल बंद - सी हो गई है पर पहले यह स्थिति न थी ।
१७. आचारांग २. १. २७४, २८१, दशवैकालिक अ० ५. ७२, ७४
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