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________________ जैन धर्म और दर्शन अर्थभेद की मीमांसा __ पहले हम दो प्रश्नों पर कुछ विचार कर लें तो अच्छा होगा। एक तो वह कि अखाद्यसूचक समझे जानेवाले सूत्रों के वनस्पति और मांस-मत्स्यादि ऐसे जो दो अर्थ पुराने समय से व्याख्याओं में देखे जाते हैं उनमें से कौन-सा अर्थ है जो पीछे से किया जाने लगा ? दूसरा प्रश्न यह है कि किसी भी पहले अर्थ के रहते हुए क्या ऐसी स्थिति पैदा हुई कि जिससे दूसरा अर्थ करने को आवश्यकता पड़ी या ऐसा अर्थ करने की ओर तत्कालीन व्याख्याकारों को ध्यान देना पड़ा ? __ कोई भी बुद्धिमान यह तो सोच ही नहीं सकता कि सूत्रों की रचना के समय रचनाकार को वनस्पति और मांस आदि दोनों अर्थ अभिप्रेत होने चाहिए। निश्चित अर्थ के बोधक सूत्र परस्पर विरोधी ऐसे दो अर्थों का बोध कराएँ और जिज्ञासुओं को संशय या भ्रम में डालें यह संभव हो नहीं है तब यही मानना पड़ता है कि रचना के समय उन सूत्रों का कोई एक ही अर्थ सूत्रकार को अभिप्रेत था । कौन-सा अर्थ अभिप्रेत था इतना विचारना भर बाकी रहता है। अगर हम मान लें कि रचना के समय सूत्रों का वनस्पतिपरक अर्थ था तो हमें यह अगत्या मानना पड़ता है कि मांस-मत्स्यादिरूप अर्थ पीछे से किया जाने लगा। ऐसी स्थिति में निर्ग्रन्थ-संघ के विषय में यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या कोई ऐसी अवस्था आई थी जब कि आपत्ति-वश निग्रन्थ-संघ मांस-मत्स्यादि का भी ग्रहण करने लगा हो और उसका समर्थन उन्हीं सूत्रों से करता हो। इतिहास कहता है कि निर्ग्रन्थ-संघ में कोई भी ऐसा छोटा-बड़ा दल नहीं हुआ जिसने आपत्ति काल में किये गए मांस-मत्स्यादि के ग्रहण का समर्थन वनस्पतिबोधक सूत्रों का मांसमत्स्यादि अर्थ करके किया हो । अलबत्ता निम्रन्थ संघ के लम्बे इतिहास में आपत्ति और अपवाद के हजारों प्रसङ्ग आए हैं पर किसी निर्ग्रन्थ-दल ने आपवादिक स्थिति का समर्थन करने के लिए अपने मूल सिद्धान्त-अहिंसा से दूर जाकर सूत्रों का बिलकुल विरुद्ध अर्थ नहीं किया है। सभी निर्ग्रन्थ अपवाद का अपवादरूप से जुदा ही वर्णन करते रहे हैं। जिसकी साक्षी छेदसूत्रों में पदपद पर है। निर्ग्रन्थ-संघ का बंधारण भी ऐसा रहा है कि कोई ऐसे विकृत अर्थ को सूत्रों की व्याख्या में पीछे स्थान दे तो वह निर्ग्रन्थ सङ्घ का अङ्ग रह ही नहीं सकता। तब यही मानना पड़ता है कि रचनाकाल में सूत्रों का असली अर्थ तो मांस-मत्स्य ही था और पीछे-से वनस्पति-अर्थ भी किया जाने लगा। ऐसा क्यों किया जाने लगा ? यही दूसरा प्रश्न अब हमारे सामने आता है। संघ की निर्माण प्रक्रिया निम्रन्थ-संघ के निर्माण की प्रक्रिया तो अनेक शताब्दी पहले से भारतवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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