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जैन धर्म और दर्शन सम्प्रदाय में भी एक पक्ष ऐसा पैदा हुआ कि जिसने बौद्ध सम्प्रदाय में मांस-' मत्स्यादि के त्याग का यहाँ तक समर्थन किया कि ऐसा मांस त्याग तो खुद बुद्ध के समय में और बुद्ध के जीवन में भी था। १५ इस पक्ष ने अपने समय में जमी हुई खाद्याखाद्य विवेक की प्रतिष्ठा के आधार पर ही पुराने बौद्ध सूत्रों के अर्थ करने का प्रयास किया है। जब कि बौद्ध सम्प्रदाय में पहले ही से एक सनातनमानस दूसरा पक्ष भी चला आता रहा है जो खाद्याखाद्य विषयक पुराने सूत्रों को तोड़-मरोड़ कर उनके अर्थों को वर्तमान ढाँचे में बैठाने का आग्रह नहीं रखता। यही स्थिति वैदिक सम्प्रदाय के इतिहास में भी रही है। वैष्णव, आर्य समाज आदि अनेक शाखाओं ने पुराने वैदिक विधानों के अर्थ बदलने की कोशिश की है तब भी सनातन-मानस मीमांसक सम्प्रदाय ज्यों का त्यों स्थिर रहकर अपने पुराने अर्थों से टस से मस नहीं होता हालाँकि जीवन-व्यवहार में मीमांसक भी मांसादि को वैसा ही अखाद्य समझते हैं जैसे वैष्णव और आर्य समाज आदि वैदिक फिरके। इस विषय में बौद्ध और वैदिक सम्प्रदाय का ऐतिहासिक अवलोकन हम अन्त में करेंगे जिससे जैन सम्प्रदाय की स्थिति बराबर समझी जा सके। विरोध-ताण्डव
ऊपर सूचित दो पहलुत्रों के अन्तों का परस्पर विरोध-तांडव जैन समाज की रंगभमि पर भी हजारों वर्षों से खेला जाता रहा है। पूज्यपाद जैसे दिगंबराचार्य अमुक सूत्रों का मांस मत्स्यादि अर्थ करने के कारण ऐसे सूत्रवाले सारे ग्रन्थों को छोड़ देने की या तो सूचना करते हैं या ऐसा अर्थ करनेवालों को श्रुतनिन्दक कह कर अपने पक्ष को उनसे ऊँचा साबित करने की सूचना करते हैं। दिगंबर संप्रदाय द्वारा श्वेताम्बर स्वीकृत आगमों को छोड़ देने का असली कारण तो और ही था और वह असली कारण आगमों में मर्यादित वस्त्र के विधान करनेवाले वाक्यों का भी होना है। पर जब श्रागमों को छोड़ना ही हो तब सम्भव हो इतने दुसरे दोष लोगों के समक्ष रखे जाएँ तो पुराने प्रचलित आगमों को छोड़ देने की बात ज्यादा न्यायसंगत साबित की जा सकती है। इसी मनोदशा के वशीभूत होकर जानते या अनजानते ऐतिहासिक स्थिति का विचार बिना किए, एक सम्प्रदाय ने सारे आगमों को एक साथ छोड़ तो दिया पर उसने आखिर को यह भी नहीं सोचा कि जो संप्रदाय आगमों को मान्य रखने का आग्रह रखता है वह भी तो उसके समान माँस-मत्स्य आदि की अखाद्यता को जीवन-व्यबहार में
१५. देखिये-लंकावतार-मांस परिवर्त परिच्छेद
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