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________________ ५५ . निम्रन्थ-सम्प्रदाय आगमिक साहित्य का ऐतिहासिक स्थान निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के आचार और तत्त्वज्ञान से संबन्ध रखने वाले जिन मुद्दों पर हम ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना चाहते हैं वे मुद्दे जैन आगमिक साहित्य में ज्यों के त्यों मिल जाते हैं तो फिर उसी आगमिक साहित्य के आधार पर उन्हें यथार्थ मानकर क्यों संतोष धारण न किया जाए ? यह प्रश्न किसी भी श्रद्धालु जैन के दिल में पैदा हो सकता है । इसलिये यहाँ यह भी बतलाना जरूरी हो जाता है कि हम जैन आगमिक साहित्य में कही हुई बातों की जाँच-पड़ताल क्यों करते हैं ? हमारे सम्मुख मुख्यतया दो वर्ग मौजूद हैं--एक तो ऐसा है जो मात्र प्राचीन आगमों को ही नहीं पर उनकी टीका-अनुटीका आदि बाद के साहित्य को भी अक्षरशः सर्वज्ञप्रणीत या तत्सदृश मानकर ही अपनी राय को बनाता है। दूसरा वर्ग वह है जो या तो आगमों को और बाद की व्याख्यात्रों को अंशतः मानता है या बिलकुल नहीं मानता है। ऐसी दशा में प्रागमिक साहित्य के आधार पर निर्विवाद रूप से सब के सम्मुख कोई बात रखनी हो तो यह जरूरी हो जाता है कि प्राचीन आगमों और उनकी व्याख्याओं में कही हुई बातों की यथार्थता बाहरी साधनों से जाँची जाए। अगर बाहरी साधन आगम-वर्णित वस्तुओं का समर्थन करता है तो मानना पड़ेगा कि आगमभाग अवश्य प्रमाणभूत है। बाहरी साधनों से पूरा समर्थन पानेवाले आगमभागों को फिर हम एक या दूसरे कारण से कृत्रिम कहकर फेंक नहीं दे सकते। इस तरह ऐतिहासिक परीक्षा जहाँ एक ओर श्रागमिक साहित्य को अर्वाचीन या कृत्रिम कहकर बिलकुल नहीं मानने वाले को उसका सापेक्ष प्रामाण्य मानने के लिए बाधित करती है वहाँ दूसरी ओर वह परीक्षा आगम साहित्य को बिलकुल सर्वज्ञप्रणीत मान कर ज्यों का त्यों मानने वाले को उसका प्रामाण्य विवेकपूर्वक मानने की भी शिक्षा देती है । अब हम देखेंगे कि ऐसा बाहरी साधन कौन है जो निम्रन्थ सम्प्रदाय के आगम कथित प्राचीन स्वरूप का सीधा प्रबल समर्थन करता हो। जैनागम और बौद्धागम का संबन्ध यद्यपि प्राचीन बौद्धपिटक और प्राचीन वैदिक-पौराणिक साहित्य ये दोनों प्रस्तुत परीक्षा में सहायकारी हैं, तो भी आगम कथित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के साथ जितना और जैसा सीधा संबन्ध बौद्ध पिटकों का है उतना और वैसा संबंध वैदिक या पौराणिक साहित्य का नहीं है। इसके निम्नलिखित कारण हैं एक तो-जैन संप्रदाय और बौद्ध सम्प्रदाय दोनों ही श्रमण संप्रदाय हैं। अतएव इनका संबंध भ्रातृभाव जैसा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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