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________________ जैन धर्म और दर्शन पुत्र होने की बात को बिल्कुल काल्पनिक कह कर छोड़ दिया । यही परम्परा आगे जाकर दिगम्बर परम्परा में समा गई । परन्तु जिस परम्परा ने श्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह दूसरे आगमों को भी अक्षरशः सत्य मान कर प्रमाण रूप से मान रखा था उसके सामने विरोध उपस्थित हुआ, क्योंकि शास्त्रों में कहीं भगवान् की माता का त्रिशला रूप से तो कहीं देवानन्दा के रूप से सूचन था । उस परम्परा के लिए एक बात को स्वीकार और दूसरे को इन्कार करना तो शक्य ही न रह गया था । समाधान कैसे किया जाए ? यह प्रश्न श्राचार्यों के सामने आया । असली रहस्य तो अनेक शताब्दियों के गर्भ में छिप ही ४ गया था । वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ को सातवें महीने में दिव्यशक्ति के द्वारा दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में रखे जाने की जो बात साधारण लोगों में व पौराणिक आख्यानों में प्रचलित थी उसने तथा देवसृष्टि की पुरानी मान्यता ने किसी विचक्षण आचार्य को नई कल्पना करने को प्रेरित किया जिसने गर्भापहरण की अद्भुत घटना को एक आश्चर्य कह कर शास्त्र में स्थान दे दिया । फिर तो क्षरशः शास्त्र के प्रामाण्य को मानने वाले अनुयायियों के लिए कोई शंका या तर्क के लिए गुञ्जाइश ही न रह गई कि वे असली बात जानने का प्रयत्न करें । देव के हस्तक्षेप के द्वारा गर्भापहरण की जो कल्पना शास्त्रारूढ हो गई उसकी संगति तो महाविदेह के सीमंधर स्वामी के साथ संबन्ध जोड़कर टाली गई फिर भी कर्म - वाद के अनुसार यह तो प्रश्न था ही कि जब जैन सिद्धान्त जन्मगत जातिभेद या 'जातिगत ऊँच-नीच भाव को नहीं मानता और केवल गुण-कर्मानुसार ही जातिभेद की कल्पना को मान्य रखता है तो उसे महावीर के ब्राह्मणत्व पर क्षत्रियत्व स्थापित करने का आग्रह क्यों रखना चाहिए ? अगर ब्राह्मण कुल तुच्छ और अनधिकारी ही होता तो इन्द्रभूति आदि सभी ब्राह्मण गणधर बन कर केवली कैसे हुए ? अगर क्षत्रिय ही उच्च कुल के हों तो फिर महावीर के अनन्य भक्त श्रेणिक आदि क्षत्रिय नरक में क्यों कर गए १ स्पष्ट है कि जैनसिद्धान्त ऐसी जातिगत कोई ऊँचनीचता की कल्पना को नहीं मानता पर जब गर्भापहरण के द्वारा त्रिशला पुत्ररूप से महावीर की फैली हुई प्रसिद्धि के समाधान का प्रयत्न हुआ तब ब्राह्मण-कुल के तुच्छत्वादि दोषों की संगत कल्पना को भी शास्त्र में स्थान मिला और उस असंगति को संगत बनाने के काल्पनिक प्रयत्न में से मरीचि के जन्म में नीचगोत्र बाँधने तक की कल्पना कथा - शास्त्र में आ गई। किसी ने यह नहीं सोचा कि ये मिथ्या कल्पनाएँ उत्तरोत्तर कितनी असंगतियाँ पैदा करती जाती हैं और कर्म - सिद्धान्त का ही खून करती हैं ? मेरी उपर्युक्त धारणा के विरुद्ध यह भी दलील हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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