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भगवान् महावीर का जीवन
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यह मान नहीं सकता और साबित नहीं कर सकता कि देवसृष्टि कहीं दूर है और उसके दिव्य सत्त्व किसी तपस्वी की सेवा में सदा हाजिर रहते हैं । ये और इनकी जैसी दूसरी अनेक घटनाएँ महावीर जीवन में वैसे ही आती हैं जैसे अन्य महापुरुषों के जीवन में | साम्प्रदायिक व्यक्ति उन घटनाओं को जीवनी लिखते समय न तो छोड़ सकता है और न उनका चालू अर्थ से दूसरा अर्थ ही लगा सकता है । इस कारण से वह महावीर की जीवनी को नई पीढ़ी के लिए प्रतीतिकर नहीं बना सकता । जब कि ऐतिहासिक व्यक्ति कितनी ही असंगत दिखाई देने वाली पुरानी घटनाओं को या तो जीवनी में स्थान ही नहीं देगा या उनका प्रतीतिकर अर्थ लगाएगा जिसे सामान्य बुद्धि भी समझ और मान सके । इतनी चर्चा से यह भलीभांति जाना जा सकता है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण संगत दिखाई देने वाली जीवन घटनाओं को ज्यों का त्यों मानने को तैयार नहीं, पर वह उन्हें बुद्धिग्राह्य कसौटी से कस कर सच्चाई की भूमिका पर लाने का प्रयत्न करेगा । यही सबब है. कि वर्तमान युग उसी पुरानी सामग्री के आधार से, पर ऐतिहासिक दृष्टि से लिखे गए महावीर जीवन को ही पढ़ना-सुनना चाहता है । यही समय की माँग है ।
महावीर की जीवनी में आनेवाली जिन असंगत तीन बातों का उल्लेख मैंने किया है उनका ऐतिहासिक खुलासा किस प्रकार किया जा सकता है इसे यहाँ बतला देना भी जरूरी है
मानव वंश के तो क्या पर समग्र प्राणी - वंश के इतिहास में भी आज तक ऐसी कोई घटना बनी हुई विदित नहीं है जिसमें एक संतान की दो जनक माताएँ हों । एक सन्तान के जनक दो-दो पिताओं की घटना कल्पनातीत नहीं है पर दो जनक माताओं की घटना का तो कल्पना में भी आना मुश्किल' है । तिस पर भी जैन श्रागमों में महावीर की जनक रूप से दो माताओं का वर्णन है । एक तो क्षत्रियाणी सिद्धार्थपत्नी त्रिशला और दूसरी ब्राह्मणी ऋषभदत्तपत्नी देवानन्दा | पहिले तो एक बालक की दो जननियाँ ही असम्भव तिस पर दोनों जननियों का भिन्न-भिन्न पुरुषों की पत्नियों के रूप से होना तो और भी असम्भव है । श्रागम के पुराने भागों में महावीर के जो नाम मिलते हैं उनमें ऐसा एक भी नाम नहीं है जो देवानन्दा के साथ उनके माता-पुत्र के संबन्ध का सूचक हो फिर भी भगवती' जैसे महत्त्वपूर्ण श्रागम में ही अपने मुख्य गणधर इन्द्रभूति को संबोधित करके खुद भगवान् के द्वारा ऐसा कहलाया गया है कि - यह
१. भगवती शतक ६ उद्देश ६ |
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