SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत महावीर के पास आए हैं, न उनके संघ में प्रविष्ट हुए हैं, फिर भी महावीर उनके उत्तर की सच्चाई और क्षमता को स्पष्ट स्वीकार ही करते हैं। दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि, जो पार्धापत्यिक महावीर के संघ में अाए, वे भी महावीर की सर्वज्ञता के बारे में पूरी प्रतीति कर लेने के पश्चात् ही उनको विधिवत् वन्दन-नमस्कार - 'तिखुत्तो श्रायाहिणं पयाहिणं वन्दामि'करते हैं; उसके पहले तो वे केवल उनके पास शिष्टता के साथ आते हैं'अदूर-सामंते ठिच्चा'। पार्श्वनाथ की परंपरा के त्यागी और गृहस्थ व्यक्तियों से संबन्ध रखने वाली, उपलब्ध आगमों में जो कुछ सामग्री है, उसको योग्य रूप में सकलित एवं व्यवस्थित करके पार्श्वनाथ के महावीर-कालीन संघ का सारा चित्र पं० दलसुख मालवणिया ने अपने एक अभ्यासपूर्ण लेख में, बीस वर्ष पहले खींचा है जो इस प्रसंग में खास द्रष्टव्य है। यह लेख 'जैन प्रकाश' के 'उत्थान-महावीरांक' में छपा है। आचार. अब हम आचार की विरासत के प्रश्न पर आते हैं। पार्वापत्यिक निग्रंथों का प्राचार बाह्य-आभ्यन्तर दो रूप में देखने में आता है। अनगारत्व, निग्रंथत्व, सचेलत्व, शीत, आतप आदि परिषह-सहन, नाना प्रकार के उपवास व्रत और भिक्षाविधि के कठोर नियम इत्यादि बाह्य आचार हैं। सामायिक समत्व या समभाव, पच्चक्खाण-त्याग, संयम-इन्द्रियनियमन, संवर--कषायनिरोध, विवेक --- अलिप्तता या सदसद्विवेक, व्युत्सर्ग-ममत्वत्याग, हिंसा असत्य अदत्तादान और बहिद्धादाण से विरति इत्यादि आभ्यन्तर अाचार में सम्मिलित हैं । पहले कहा जा चुका है कि, बुद्ध ने गृहत्याग के बाद निग्रंथ आचारों का भी पालन किया था । बुद्ध ने अपने द्वारा आचरण किए गए निग्रंथ आचारों का जो संक्षेप में संकेत किया है उसका पार्वापत्यिक निग्रंथों की चर्या के उपलब्ध वर्णन के साथ मिलान करते हैं १८ एवं महावीर के द्वारा आचरित बाह्य चर्या के साथ मिलान करते हैं१६ तो सन्देह नहीं रहता कि, महावीर को निग्रंथ या अनगार धर्म की बाह्य चर्या पाश्र्वापत्यिक परंपरा से मिली है--भले ही उन्होंने उसमें देशकालानुसारी थोड़ा-बहुत परिवर्तन किया हो। आभ्यन्तर आचार भी भगवान् महावीर का वही है जो पाश्र्वापत्यिकों में प्रचलित था । कालासवेसीपुत्त १८. देखो-नोट नं० १४ । १६. आचारांग, अ०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy