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एकां दिशं व्रजति यद्गतिमद्गतं च तत्रस्थमेव च विभाति दिगन्तरेषु ।
यातं कथं दशदिगन्तविभक्तमूर्ति युज्येत वक्तुमुत वा न गतं यशस्ते ।। आय जैन वादी
दिवाकर श्राद्य जैन वादी हैं । वे वादविद्या के संपूर्ण विशारद जान पड़ते हैं, क्यों कि एक तरफ से उन्होंने सातवीं वादोपनिषद् बत्तीसी में वादकालीन सब नियमोपनियमों का वर्णन करके कैसे विजय पाना यह बतलाया है तो दूसरी तरफ से आठवीं बत्तीसी में वाद का पुरा परिहाम भी किया है।
दिवाकर आध्यात्मिक पथ के त्यागी पथिक थे और वाद कथा के भी रसिक थे। इसलिए उन्हें अपने अनुभव से जो आध्यात्मिकता और वाद-विवाद में असंगति दिख पड़ी उसका मार्मिक चित्रण खींचा है। वे एक मांस-पिण्ड में लुब्ध और लड़नेवाले दो कुत्तों में तो कभी मैत्री की संभावना कहते हैं; पर दो सहोदर भी वादियों में कभी सख्य का संभव नहीं देखते। इस भाव का उनका चमत्कारी उद्गगार देखिए -
ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिषसंगजातमत्सरयोः ।
स्यात् सख्यमपि शुनोत्रोरपि वादिनोर्न स्यात् ।। ८, १. वेसष्ट कहते हैं कि कल्याण का मार्ग अन्य है और वादीका मार्ग अन्य ; क्यों कि किसी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नहीं कहा है
अन्यत एव श्रेयांस्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषाः ।
वाक्संरंभं क्वचिदपि न जगाद मुनिः शिवोपायम् ।। आद्य जैन दार्शनिक व आद्य सर्वदर्शनसंग्राहक
: दिवाकर श्राद्य जैन दार्शनिक तो है ही, पर साथ ही वे अाद्य सर्व भारतीय दर्शनों के संग्राहक भी हैं। सिद्धसेन के पहले किसी भी अन्य भारतीय. विद्वान् ने संक्षेप में सभी भारतीय दर्शनों का वास्तविक निरूपण यदि किया हो तो उसका पता अभीतक इतिहास को नहीं है। एक बार सिद्धसेन के द्वारा सब दर्शनों के वर्णन की प्रथा प्रारम्भ हुई कि फिर आगे उसका अनुकरण किया जाने लगा । श्राठवीं सदी के हरिभद्र ने 'षड्दर्शनसमुच्चय' लिखा, चौदहवीं सदी के माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' लिखा; जो सिद्धसेन के द्वारा प्रारम्भ की हुई प्रथा का विकास है । जान पड़ता है सिद्धसेन ने चार्वाक, मीमांसक आदि प्रत्येक दर्शन का वर्णन किया होगा, परन्तु अभी जो बत्तीसियां लभ्य हैं उनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, श्राजीवक और जैन दर्शन की निरूपक बत्तीसियां ही हैं। जैन दर्शन का निरूपण तो एकाधिक बत्तीसियों में हुआ है। पर किसी
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