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सम्यग्दर्शन', ' सर्वज्ञ२, क्षीणक्लेश, चरमदेह आदि ।
२ प्रसुप्त, तनु आदि क्लेशावस्था', पाँच यम, योगजन्य' विभूति, सोपक्रम निरूपक्रम कर्म का स्वरूप, तथा उसके दृष्टान्त, अनेक
१ योगसूत्र (४-१५) भाष्य, तत्त्वार्थ (श्र. १-२)। २ योगसत्र ( ३-४६) भाष्य, तत्त्वार्थ ( ३-४६)।
३ योगसूत्र (१-४) भाष्य । जैन शास्त्र में बहुधा 'क्षीणमोह' 'क्षीणकषाय' शब्द मिलते हैं। देखो तत्त्वार्थ (अ० ६-३८)।
४ योगसूत्र ( २-४ ) भाष्य, तत्त्वार्थ ( अ० २-५२)।
५ प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इन चार अवस्थाओं का योग ( २-४) में वर्णन है । जैनशास्त्र में वही भाव मोहनीयकर्म की सत्ता, उपशम क्षयोपशम, विरोधिप्रकृति के उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्था के वर्णनरूप से वर्तमान है। देखो योगसूत्र ( २-४) की यशोविजयकृत वृत्ति ।
६ पाँच यमोंका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थो में है सही, पर उसकी परिपूर्णता "जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्" ( योगसूत्र २-३१) में तथा दशवैकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशास्त्रप्रतिपादित महाव्रतों में देखने में आती है।
७ योगसूत्र के तीसरे पाद में विभूतियों का वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकार की हैं। १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं। अन्तर्धान, हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, जातिस्मरण, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलब्धियाँ हैं, और आमौषधि, विगुडौषधि, श्लेष्मौषधि, सर्वोषधि, जंघाचारण, विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक
आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । देखो आवश्यकनियुक्त (गा० ६६, ७० ) लब्धि यह विभूतिका नामान्तर है।
८ योगभाष्य और जैनग्रन्थों में सोपक्रम निरुपक्रम श्रायुष्कर्म का स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूप को दिखाते हुए भाष्यकार ने यो. सू. ३-२२ के भाष्य में श्रार्द्र वस्त्र और तृणराशि के जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे अावश्यकनियुक्ति (गाथा-६५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-३०६१) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर तत्त्वार्थ (अ०-२. ५२) के भाष्य में दो दृष्टान्तों के उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा
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