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________________ २५७ का असर अन्य गुणग्राही प्राचार्यों पर भी पड़ा', और वे उस मतभेदसहिष्णुता के तत्त्व का मर्म समझ गये। १. पुष्यैश्च बलिना चैव वस्त्रः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ।। अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा। गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् ।। सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ।। गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विशेषेऽप्येतदिष्यते । अद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ।। योगबिन्दु श्लो १६-२० जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो किसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेष को स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकार की प्रतीक मानने वालों या अन्य प्रकार की उपासना करने वालों से द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेद के व्यामोह से ही आपस में लड़ मरते हैं। इस अनिष्ट तत्त्वको दूर करने के लिये ही श्रीमान् हरिभद्र सूरिने उक्त पद्यों में प्रथमाधिकारी के लिये सब देवों की उपासना को लाभदायक बतलाने का उदार प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका अनुकरण श्री यशोविजयजीने भी अपनी 'पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका' 'पाठ दृष्टियों की सज्झाय' आदि ग्रन्थो में किया है । एकदेशीयसम्प्रदायाभिनिवेशी लोगों को समजाने के लिये 'चारिसंजीवनीचार' स्थाय का उपयोग उक्त दोनों श्राचार्यों ने किया है। यह न्याय बड़ा मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है। ___ इस समभावसूचक दृष्टान्त का उपनय श्रीज्ञानविमलने पाठ दृष्टि की सज्झाय पर किये हुए अपने गूजराती टबे में बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है। इसका भाव संक्षेप में इस प्रकार है। किसी स्त्री ने अपनी सखी से कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होने से मुझे बड़ा कष्ट है, यह सुन कर उस आगन्तुक सखी ने कोई जड़ी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थान को चली गई । पतिके बैल बन जाने से उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुष रूप बनाने का उपाय न जानने के कारण उस बैल रूप पतिको चराया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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