SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० आध्यात्मिक उच्च मानसिक भावों के चित्र भी बड़ी खूबीवाले मिलते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज है कि उस जमाने के लोगों का झुकाव प्राध्यात्मिक अवश्य था । यद्यपि ऋग्वेद में योगशब्द अनेक स्थानों में आया है, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोड़ना इतना ही है, ध्यान या समाधि अर्थ नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्य में ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेद में बिलकुल नहीं हैं। ऐसा होने का कारण जो कुछ हो, पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगों में ध्यान की भी रुचि थी। ऋग्वेद का ब्रह्मस्फुरण जैसे-जैसे विकसित होता गया और उपनिषद के जमाने में उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्ग भी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला। यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदों में भी समाधि अर्थ में योग, ध्यान आदि शब्द पाये जाते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद में तो स्पष्ट रूप से योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गों का वर्णन है । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिषदें तो सिर्फ योगविषयक ही हैं, जिनमें योगशास्त्र की तरह सांगोपांग योगप्रक्रिया का वर्णन है। अथवा यह कहना चाहिए कि १ मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र है। मं. १० सू. १६६ मं. ५। मं. १ सू, १८ मं. ७ । मं. १ सू. ५ मं. ३ । मं. २ सू. ८ मं. १ । मं. ६ सू. ५८ मं. ३ । २ (क) तैत्तिरिय २-४ । कठ २-६-११ । श्वेताश्वतर २-११, ६-३ । (ख) छान्दोग्य ७-६-१, ७-६-२, ७-७-१, ७-२६-१ । श्वेताश्वतर १-१४ । कौशीतकि ३-२, ३-३, ३-४, ३६ । ३ श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय २ विरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ।। प्राणान्प्रपीड्येह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोङ्सीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ६ ॥ समे शुचौ शर्करावहिवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चर्पीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०॥ इत्यादि. ४ ब्रह्मविद्योपनिषद्, क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्व, हंस । देखो धुसेनकृत'Philosophy of the Upanishad's.' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy