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एक का पराजय ही दूसरे का अवश्यम्भावी जय हो। ऐसा भी सम्भव है कि प्रतिवादी का पराजय माना जाए पर वादी का जय न माना जाए - उदाहरणार्थ वादी ने दुष्ट साधन का प्रयोग किया हो, इस पर प्रतिवादी ने सम्भावित दोषों का कथन न करके मिथ्यादोषों का कथन किया, तदनन्तर वादी ने प्रतिवादी के मिथ्यादोषों का उद्भावन किया- ऐसी दशा में प्रतिवादी का पराजय अवश्य माना जायगा । क्योंकि उसने अपने कर्त्तव्य रूप से यथार्थ दोषों का उद्भावन न करके मिथ्यादोषों का ही कथन किया जिसे वादी ने पकड़ लिया। इतना होने पर भी वादी का जय नहीं माना जाता क्योंकि वादी ने दुष्ट साधन का ही प्रयोग किया है । जब कि जय के वास्ते वादी का कर्तव्य है कि साधन के यथार्थ ज्ञान द्वारा निर्दोष साधन का ही प्रयोग करे । इस तरह धर्मकीर्त्ति ने जय-पराजय की ब्राह्मणसम्मत व्यवस्था में संशोधन किया । पर उन्होंने जो
साधनाङ्गवचन तथा श्रदोषोद्भावन द्वारा जय-पराजय की व्यवस्था की इसमें इतनी जटिलता और दुरूहता श्री गई कि अनेक प्रसङ्गों में यह सरलता से निर्णय करना ही सम्भव हो गया कि श्रसाधनाङ्गवचन तथा दोषोद्भावन है या नहीं । इस जटिलता और दुरूहता से बचने एवं सरलता से निर्णय करने की दृष्टि से भट्टारक कलङ्क ने धर्मकीर्त्तिकृत जय-पराजय व्यवस्था का भी संशोधन किया । कलङ्क के संशोधन में धर्मकीर्त्तिसम्मत सत्य का तत्त्वतो निहित है ही, पर जान पड़ता है कलङ्क की दृष्टि में इसके अलावा हिंसासमभाव का जैन प्रकृतिसुलभ भाव भी निहित है । अतएव कलङ्क ने कह दिया कि किसी एक पक्ष की सिद्धि ही उसका जय है और दूसरे पक्ष की सिद्धि ही उसका पराजय है । कलङ्क का यह सुनिश्चित मत है कि किसी एक पक्ष की सिद्धि दूसरे पक्ष की प्रसिद्धि के बिना हो ही नहीं सकती । श्रतएव कलङ्क के मतानुसार यह फलित हुआ कि जहाँ एक की सिद्धि होगी वहाँ दूसरे की प्रसिद्धि अनिवार्य है, और जिस पक्ष की सिद्धि हो उसी की
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दुष्टसाधनाभिधानेऽपि वादिनः प्रतिवादिनोऽप्रतिपादिते दोषे पराजयव्यवस्थापना युक्ता । तयोरेव परस्परसामर्थ्योपघातापेक्षया जयपराजयव्यवस्थापनात् । केवलं हेत्वाभासाद् भूतप्रतिपत्तेरभावादप्रतिपादकस्य जयोऽपि नास्त्येव । ' वादन्याय पृ०७० ।
१ ' निराकृतावस्थापित विपक्षस्वपक्षयोरेव जयेतरव्यवस्था नान्यथा । तदुक्तम्स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । नासाधनाङ्गवचनं नाऽदोषोद्भावनं द्वयोः ॥ ' - अष्टश० अष्टस० पृ० ८७ । 'तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलङ्क : कथितो जयः । स्वपक्षसिद्धिरे कस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८१ ।
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