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निग्रहस्थान भारतीय तर्क साहित्य में निग्रहस्थान की प्राचीन विचारधारा ब्राह्मण परम्परा की ही है, जो न्याय तथा वैद्यक के ग्रन्थों में देखी जाती है। न्याय परम्परा में अक्षपाद ने जो संक्षेप में विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति रूप से द्विविध निग्रह स्थान को बतलाया और विस्तार से उसके बाईस भेद बतलाए वही वर्णन
आजतक के सैकड़ों वर्षों में अनेक प्रकाण्ड नैयायिकों के होनेपर भी निर्विवाद रूप से स्वीकृत रहा है। चरक का निग्रहस्थानवर्णन अक्षरशः तो अक्षपाद के वर्णन जैसा नहीं है फिर भी उन दोनों के वर्णन की भित्ति एक ही है। बौद्ध परम्परा का निग्रहस्थानवर्णन दो प्रकार का है। एक ब्राह्मणपरम्परानुसारी और दूसरा स्वतन्त्र । पहिला वर्णन प्राचीन बौद्ध' तर्कग्रन्थों में है, जो लक्षण, संख्या, उदाहरण आदि अनेक बातों में बहुधा अक्षपाद के और कभी कभी चरक (पृ० २६६) के वर्णन से मिलता है। ब्राह्मण परम्परा का विरोधी स्वतंत्र निग्रहस्थाननिरूपण बौद्ध परस्परा में सबसे पहिले किसने शुरू किया यह अभी निश्चित नहीं । तथापि इतना तो निश्चित ही है कि इस समय ऐसे स्वतन्त्र निरूपणवाला पूर्ण और अति महत्त्व का जो 'वादन्याय' ग्रन्थ हमारे सामने मौजूद है वह धर्मकीर्ति का होने से इस स्वतन्त्र निरूपण का श्रेय धर्मकीर्ति को अवश्य है । सम्भव है इसका कुछ बीजारोपण तार्किकप्रवर दिङ्नाग ने भी किया हो । जैन परम्परा में निग्रहस्थान के निरूपण का प्रारम्भ करनेवाले शायद पात्रकेसरी स्वामी हों । पर उनका कोई ग्रन्थ अभी लभ्य नहीं। श्रतएव मौजूदा साहित्य के अधार से तो भट्टारक अकलङ्क को ही इसका प्रारम्भक कहना होगा। पिछले सभी जैन तार्किकों ने अपने-अपने निग्रहस्थाननिरूपण में भट्टारक अकलङ्क के ही वचन को उद्धृत किया है, जो हमारी उक्त सम्भावना का समर्थक है।
१ तकशास्त्र पृ० ३३ । उपायहृदय पृ० १८। २ Pre. Dignag Buddhist Logic P. XXII.
३ 'श्रास्तां तावदलाभादिरयमेव हि निग्रहः। न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवत्तनम् । '-न्यायवि० २. २१३ । 'कथं तर्हि वादपरिसमाप्तिः ? निराकृतावस्थापितविपक्षस्वपक्षयोरेव जयेतरव्यस्था नान्यथा । तदुक्तम्-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य
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