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________________ २०२ अनेकान्तिक हेत्वाभास ____ अनैकान्तिक हेत्वाभास के नाम के विषय में मुख्य दो परम्पराएँ प्राचीन हैं। पहली गौतम की और दूसरी कणाद की । गौतम अपने न्यायसूत्र में जिसे सव्यभिचार (१. २. ५.) कहते हैं उसी को कणाद अपने सूत्रों ( ३. १. १५) में सन्दिग्ध कहते हैं। इस नामभेद की परम्परा भी कुछ अर्थ रखती है और वह अर्थ अगले सब व्याख्याग्रन्थों से स्पष्ट हो जाता है । वह अर्थ यह है कि एक परम्परा अनैकान्तिकता को अर्थात् साध्य और उसके अभाव के साथ हेतु के साहचर्य को, सव्यभिचार हेत्वाभास का नियामक रूप मानती है संशयजनकत्व को नहीं जब दूसरी परम्परा संशयजनकत्व को तो अनैकान्तिक हेत्वाभासता का नियामक रूप मानती है साध्य तदभावसाहचर्य को नहीं। पहली परम्परा के अनुसार जो हेतु साध्य-तदभावसहचरित है चाहे वह संशयजनक हो या नहीं-वही सव्यभिचार या अनैकान्तिक कहलाता है। दूसरी परम्परा के अनुसार जो हेतु संशयजनक है. चाहे वह साध्य-तदभावसहचरित हो या नहीं-वही अनेकान्तिक या सव्यभिचार कहलाता है। अनैकान्तिकता के इस नियामकभेदवाली दो उक्त परम्पराओं के अनुसार उदाहरणों में भी अन्तर पड़ जाता है । अतएव गौतम की परम्परा में असाधारण या विरुद्धाव्यभिचारी का अनैकान्तिक हेत्वाभास में स्थान सम्भव ही नहीं क्योंकि वे दोनों साध्याभावसहचरित नहीं । उक्त सार्थकनामभेद वाली दोनों परम्परात्रों के परस्पर भिन्न ऐसे दो दृष्टिकोण आगे भी चालू रहे पर उत्तरवर्ती सभी तर्कशास्त्रों में-चाहे वे वैदिक हों, बौद्ध हों, या जैन-नाम तो केवल, गौतमीय परम्परा का अनैकान्तिक ही जारी रहा। कणादीय परम्परा का सन्दिग्ध्र नाम व्यवहार में नहीं रहा । प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश इन दोनों का पौर्वापर्य अभी सुनिश्चित नहीं अतएव यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि अमुक एक का प्रभाव दूसरे पर है तथापि न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद इन दोनों की विचारसरणी का अभिन्नत्व और पारस्परिक महत्त्व का भेद खास ध्यान देने योग्य है । न्यायप्रवेश में यद्यपि नाम तो अनैकान्तिक है सन्दिग्ध नहीं, फिर भी उसमें अनैकान्तिकता का नियामक रूप प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को ही माना है। अतएव न्यायप्रवेशकार ने अनैकान्तिक के छः भेद बतलाते हुए उनके सभी उदाहरणों में संशयजनकत्व स्पष्ट बतलाया है। प्रशस्तपाद न्यायप्रवेश की तरह संशय १ 'तत्र साधारण:-शब्दः प्रमेयत्वान्नित्य इति । तद्धि नित्यानित्यपक्षयोः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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