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संक्षिप्त परिचय
करनेके पश्चात् सुखलालजीको एकाध वर्षका विश्राम लेना चाहिए।" इतनेमें सन् '३० का ऐतिहासिक वर्ष आ पहुँचा। सारे देश में स्वतंत्रता-संग्रामके नकारे बजने लगे । राष्ट्रीय आंदोलनमें संमिलित होनेका सबको आह्वान हुआ । प्रसिद्ध दांडीकूच प्रारंभ हुई, और गांधीजीके सभी साथी इस अहिंसक संग्रामके सैनिक बने । पंडितजी भी उसमें संमिलित होनेको अधीर हो उठे, पर उनके लिये तो यह संभव ही न था, अतः वे मन मसोसकर चुप रह गये। उन्होंने इस समयका सदुपयोग एक और सिद्धि प्राप्त करनेके लिये किया । अंग्रेजी में विविध विषयके उच्चकोटिके गंभीर साहित्यका प्रकाशन देखकर पंडितजीको अंग्रेजीकी अपनी अज्ञानता बहुत खटकी । उन्होंने कटिबद्ध होकर सन् ३०३१ के वे दिन अंग्रेजी-अध्ययनमें बिताये । इसी सिलसिले में वे तीन मासके लिये शांतिनिकेतन भी रह आये । अंग्रेजीकी अच्छी योग्यता पाकर ही उन्होंने दम लिया ।
सन् १९३३ में पंडितजी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटीमें जैन-दर्शनके अध्यापक नियुक्त हुए। दस वर्ष तक इस स्थान पर कार्य करनेके पश्चात् सन् १९४४ में वे निवृत्त हुए । इस दस वर्षकी अवधिमें पंडितजीने अनेक विद्वानोंको, जिन्हें पंडितजी 'चेतनग्रंथ' कहते हैं, तैयार किया और कई ग्रंथोका संपादन किया।
निवृत्तिके समय हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसके तत्कालीन वाइस-चान्सलर और वर्तमान उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णने यूनिवर्सिटीमें ही ग्रन्थ-संपादनका महत्त्वपूर्ण कार्य सांपने और एतदर्थ आवश्यक धनकी व्यवस्था कर देनेका पंडितजीके सामने प्रस्ताव रखा, पर पंडितजीका मन अब गुजरातकी ओर खींचा जा रहा था, अतः उसे वे स्वीकार न कर सके ।
इससे पूर्व भी कलकत्ता यूनिवर्सिटीके तत्कालीन वाइस चांसलर श्री. श्यामाप्रसाद मुखर्जीने सर आशुतोष चेयरके जैन-दर्शनके अध्यापकका कार्य करनेकी पंडितजीसे प्रार्थना की थी, पर पंडितजीने उसमें भी सविनय अपनी असमर्थता प्रदर्शित की थी ।
समन्वयसाधक पांडित्य पंडितजीके अध्यापन एवं साहित्य-सर्जनकी मुख्य तीन विशेषताएँ हैं :
(१) " नामूलं लिख्यते किंचित् "-जो कुछ भी पढ़ाना या लिखना हो वह आधारभूत ही होना चाहिए और उसमें अल्पोक्ति, अतिशयोक्ति या कल्पित उक्तिका तनिक भी समावेश नहीं होना चाहिये ।
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