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________________ १७६ कह सकते कि हेमचन्द्रने संक्षेपरुचिकी दृष्टि से उस खण्डनको जो पहिलेसे बराबर जैन ग्रन्थों में चला आ रहा था छोड़ा, कि पूर्वापर असंगतिकी दृष्टिसे । जो कुछ हो, पर आचार्य हेमचन्द्रके द्वारा वैदिक परम्परा सम्मत अनुमान त्रैविध्यके खण्डनका परित्याग होनेसे, जो जैन ग्रन्थों में खासकर श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में एक प्रकारकी असंगति आ गई थी वह दूर हो गई। इसका श्रेय आचार्य हेमचन्द्र को ही है। असंगति यह थी कि आर्यरक्षित जैसे पूर्वधर समझे जानेवाले अागमधर जैन आचार्यने न्याय सम्मत अनुमानत्रैविध्यका बड़े विस्तारसे स्वीकार और समर्थन किया था जिसका उन्हीं के उत्तराधिकारी अभयदेवादि श्वेताम्बर ताकिंकोंने सावेश खण्डन किया था। दिगम्बर परम्परामें तो यह असंगति इसलिए नहीं मानी जा सकती कि वह आर्यरक्षितके अनुयोगद्वारको मानती ही नहीं। अतएव अगर दिगम्बरीय तार्किक अकलङ्क आदिने न्यायदर्शन सम्मत अनुमानत्रैविध्यका खण्डन किया तो वह अपने पूर्वाचार्योंके मार्गसे किसी भी प्रकार विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । पर श्वेताम्बरीय परम्पराकी बात दूसरी है। अभयदेव आदि श्वेताम्बरीय तार्किक जिन्होंने न्यायदर्शन सम्मत अनुमानत्रैविध्यका खण्डन किया, वे तो अनुमानत्रैविध्यके पक्षपाती आर्यरक्षितके अनुगामी थे। अतएव उनका वह खण्डन अपने पूर्वाचार्य के उस समर्थनसे स्पष्टयतया मेल नहीं खाता। आचार्य हेमचन्द्रने शायद सोचा कि श्वेताम्बरीय तार्किक अकलङ्क आदि दिगम्बर तार्किकोंका अनुसरण करते हुए एक स्वपरम्पराकी असंगतिमें पड़ गए हैं । इसी विचारसे उन्होंने शायद अपनी व्याख्या में त्रिबिध अनुमानके खण्डनका परित्याग किया। सम्भव है इसी हेमचन्द्रोपज्ञ असंगति परिहारका श्रादर उपाध्याय यशोविजयजीने भी किया और अपने तर्कभाषा ग्रन्थमें वैदिक परम्परा सम्मत अनुमानत्रैविध्पका निरास नहीं किया, जब कि हेतु के न्यायसम्मत पाञ्चरूप्यका निरास अवश्य किया । ई० १६३६ ] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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