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________________ १७३ इस विषय पर बड़े सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनका श्रारम्भ गंगेश उपाध्यायसे होता है। बौद्धतार्किक ( हेतुवि० टी० पृ० १७ ) भी तर्कात्मक विकल्पज्ञानको व्यासिज्ञानोपयोगी मानते हुए भी प्रमाण नहीं मानते । इस तरह तर्कको प्रमाणरूप माननेकी मीमांसक परम्परा .और अप्रमाणरूप होकर भी प्रमाणानुग्राहक माननेकी नैयायिक और बौद्ध परम्परा है । जैन परम्परामें प्रमाणरूपसे माने जानेवाले मतिज्ञानका द्वितीय प्रकार ईहा जो वस्तुतः गुणदोषविचारणात्मक ज्ञानव्यापार ही है उसके पर्यायरूपसे ऊह और तर्क दोनों शब्दोंका प्रयोग उमास्वातिने किया है ( तत्त्वार्थभा० १. १५)। जब जैन परम्परामें तार्किक पद्धतिसे प्रमाणके भेद और लक्षण आदिकी व्यवस्था होने लगी तब सम्भवतः सर्वप्रथम अकलङ्कने ही तर्कका स्वरूप, विषय, उपयोग आदि स्थिर किया (लघी० स्ववि० ३. २.) जिसका अनुसरण पिछले सभी जैन तार्किकोंने किया है । जैन परम्परा मीमांसकोंकी तरह तर्क या ऊहको प्रमाणात्मक ज्ञान ही मानती आई है। जैन तार्किक कहते हैं कि व्याप्तिज्ञान ही तर्क या ऊह शब्दका अर्थ है। चिरायात अार्यपरम्पराके अति परिचित ऊह या तर्क शब्दको लेकर ही अकलङ्कने परोक्षप्रमाण के एकभेद रूपसे तर्कप्रमाण स्थिर किया । और वाचस्पति मिश्र आदि नैयायिकोंने व्याप्तिज्ञानको कहीं मानसप्रत्यक्षरूप, कहीं लौकिकप्रत्यक्षरूप, कहीं अनमिति आदि रूप माना है उसका निरास करके जैन तार्किक व्याप्तिज्ञानको एकरूप ही मानते आए हैं। वह रूप है उनकी परिभाषाके अनुसार तर्कपदप्रतिपाद्य । प्राचार्य हेमचन्द्र उसी पूर्वपरम्पराके समर्थक हैंप्र० मी० पृ० ३६ । ई० १६३६ ] [प्रमाणमीमांसा १ तात्पर्य० पृ० १५६-१६७ । न्यायम० पृ० १२३ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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