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________________ अतएव वे अपने-अपने मन्तव्यकी पुष्टिमें चाहे युक्ति भिन्न-भिन्न बतलाएँ फिर भी वे सभी एक मतसे स्मृतिरूप ज्ञानमें प्रमाण शब्दका व्यवहार न करनेके ही पक्षमें हैं। कुमारिल आदि मीमांसक कहते हैं कि स्मृतिज्ञान अनुभव द्वारा ज्ञात विषयको ही उपस्थित करके कृतकृत्य हो जानेके कारण किसी अपूर्व अर्थका प्रकाशक नहीं, वह केवल गृहीतग्राहि है और इसीसे वह प्रमाण नहीं । प्रशस्तपादके अनुगामी श्रीधरने भी उसी मीमांसककी गृहीतग्राहित्ववाली युक्तिका अवलम्बन करके स्मृतिको प्रमाणबाह्य माना है (कन्दली पृ० २५७)। पर अक्षपादके अनुगामी जयन्तने दूसरी ही युक्ति बतलाई है। वे कहते हैं कि स्मृतिज्ञान विषयरूप अर्थके सिवाय ही उत्पन्न होनेके कारण अनर्थज होनेसे प्रमाण नहीं | जयन्तकी इस युक्तिका निरास श्रीधरने किया है। अक्षपादके हो अनुगामी वाचस्पति मिश्रने तीसरी युक्ति दी है। वे कहते हैं कि लोकव्यवहार स्मृतिको प्रमाण माननेके पक्षमैं नहीं है अतएव उसे प्रमा कहना योग्य नहीं । वे प्रमाकी व्याख्या करते समय स्मृतिभिन्न ज्ञानको लेकर ही विचार करते हैं (तात्पर्य पृ० २०)। उदयनाचार्यने भी स्मृतिको प्रमाण न माननेवाले सभी पूर्ववर्ती तार्किकोंकी युक्तियोंका निरास करके अन्तमें वाचस्पति मिश्रके तात्पर्यका अनुसरण करते हुए यही कहा है कि अनपेक्ष होनेके कारण अनुभव ही प्रमाण कोटिमें गिना जाना चाहिए, स्मृति नहीं; क्योंकि वह अनुभवसापेक्ष है और ऐसा माननेका कारण लोकव्यवहार ही है । १. 'तत्र यत् पूर्वविज्ञानं तस्य प्रामाण्यमिष्यते । तदुपस्थानमात्रेण स्मृतेः स्याच्चरितार्थता ।।'-श्लोकवा० अनु० श्लो० १६० । प्रकरणप० पृ० ४२ ।। २. 'न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् । अपि त्वनर्थजन्यत्वं तद. प्रामाण्यकारणम् ॥'-न्यायम० पृ० २३ । ३. 'ये त्वनर्थजत्वात् स्मृतेरप्रामाण्यमाहुः तेषामतीतानगतविषयस्यानुमानस्थाप्रामाण्यं स्यादिति दूषणम् ।।'-कन्दली० पृ० २५७ ।। . ४. 'कथं तर्हि स्मृतेर्व्यवच्छेदः १ अननुभवत्वेनैव । यथार्थो ह्यनुभवः प्रमेति प्रामाणिकाः पश्यन्ति । 'तत्त्वज्ञानाद्' इति सूत्रणात् । अव्यभिचारि ज्ञानमिति च । ननु स्मृतिः प्रमैव किं न स्याद् यथार्थज्ञानत्वात् प्रत्यक्षाद्यनुभूतिवदिति चेत् । न । सिद्धे व्यवहारे निमित्तानुसरणात् । न च स्वेच्छाकल्पितेन निमित्तेन लोकव्यवहारनियमनम् , अव्यवस्थया लोकव्यवहारविप्लवप्रसङ्गात् । न च स्मृतिहेतो प्रमाणाभियुक्तानां महर्षीणांप्रमाणव्यवहारोऽस्ति, पृथगनुपदेशात् । -न्यायकु. ४.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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