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________________ १६६ प्रामाण्य है । अकलङ्कके अनुगामी विद्यानन्द और माणिक्यनन्दीके अनुगामी प्रभाचन्द्रके टीकाग्रन्थोंका पूर्वापर अवलोकन उक्त नतीजे पर पहुँचाता है। क्योंकि अन्य सभी जैनाचार्योंकी तरह निर्विवाद रूपसे 'स्मृतिप्रामाण्य का समर्थन करनेवाले अकलङ्क और माणिक्यनन्दी अपने-अपने प्रमाण लक्षणमें जब बौद्ध और मीमांसकके समान 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पद रखते हैं तब उन पदोंकी सार्थकता उक्त तात्पर्यके सिवाय और किसी प्रकारसे बतलाई ही नहीं जा सकती चाहे विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रका स्वतन्त्र मत कुछ भी रहा हो । बौद्ध विद्वान् विकल्प और स्मृति दोनोंमें, मीमांसक स्मृति मात्रमें स्वतन्त्र प्रामाण्य नहीं मानते । इसलिए उनके मतमें तो 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पदका प्रयोजन स्पष्ट है । पर जैन परम्पराके अनुसार वह प्रयोजन नहीं है। श्वेताम्बर परम्पराके सभी विद्वान् एक मतसे धारावाहिज्ञानको स्मृतिकी तरह प्रमाण माननेके ही पक्षमें हैं। अतएव किसीने अपने प्रमाणलक्षणमें 'अनधिगत' 'अपूर्व' श्रादि जैसे पदको स्थान ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने स्पष्टरूपेण यह कह दिया कि चाहे ज्ञान गृहीतग्राहि हो तब भी वह अगृहीतग्राहिके समान ही प्रमाण है। उनके विचारानुसार गृहीतग्राहित्व प्रामाण्यका विघातक नहीं, अतएव उनके मतसे एक धारावाहिक ज्ञानव्यक्तिमें विषयभेदको अपेक्षासे प्रामाण्य-अप्रामाण्य माननेकी जरूरत नहीं और न तो कभी किसीको अप्रमाण माननकी जरूरत है। श्वेताम्बर आचार्योंमें भी प्रा० हेमचन्द्रकी खास विशेषता है क्योंकि उन्होंने गृहीतग्राहि और ग्रहीष्यमाणग्राहि दोनोंका समत्व दिखाकर सभी धारावाहिज्ञानोंमें प्रामाण्यका जो समर्थन किया है वह खास मार्केका है-प्र० मी० पृ० ४ । ई० १६३६ [प्रमाण मीमांसा १. 'गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति। तन लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥'-तत्त्वार्थश्लो० १. १०.७८। 'प्रमान्तरागृहीतार्थप्रकाशित्वं प्रपञ्चतः। प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्वेपि कथंचन ।।'-तत्वार्थश्लो० १.१३.६४ । 'गृहीतग्रहणात् तत्र न स्मृतेश्चेत्प्रमाणता। धारावाह्यक्षविज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा॥'-तत्त्वार्थश्लोक० १.१३.१५ 'नन्वेवमपि प्रमाणसंप्लववादिताव्याघातः प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रमाणान्तराप्रतिपत्तिरित्यचोद्यम् । अर्थपरिच्छित्तिविशेषसद्भावे तत्प्रवृत्तेरप्यभ्युपगमात् । प्रथमप्रमाणप्रतिपन्ने हि वस्तुन्याकारविशेष प्रतिपद्यमान प्रमाणान्तरमपूर्वार्थमेव वृक्षो न्यग्रोध इत्यादिवत् ।'–प्रमेयक० पृ० १६ । २. 'यद् गृहीतग्राहि शामं न तत्प्रमाणं, यथा स्मृतिः, गृहीतग्राही च प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः'तत्वसं० ५० का० १२६८1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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