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________________ १५५ संस्कृत, प्राकृत , पालि जैसी शास्त्रीय भाषाओं में वह शब्द बहुत पुराना और प्रसिद्ध है पर जैन दर्शनमें उसका जो परिभाषिक अर्थ है वह अर्थ अन्य दर्शनों में नहीं देखा जाता । उत्पादविनाशशाली या आविर्भाव-तिरोभाववाले जो धर्म जो विशेष या जो अवस्थाएँ द्रव्यगत होती हैं वे ही पर्याय या परिणामके नाम से जैन दर्शनमें प्रसिद्ध हैं जिनके वास्ते न्याय-वैशेषिक श्रादि दर्शनोंमें गुण शब्द प्रयुक्त होता है । गुण, क्रिया आदि सभी द्रव्यगत धर्मों के अर्थमें श्रा० हेमचन्द्रने पर्यायशब्दका प्रयोग किया है। पर गुण तथा पर्याय शब्दके बारेमें जैन दर्शनका इतिहास खास ज्ञातव्य है। भगवती आदि प्राचीनतर आगमोंमै गुण और पर्याय दोनों शब्द देखे जाते हैं । उत्तराध्ययन ( २८. १३ ) में उनका अर्थभेद स्पष्ट है। कुन्दकुन्द, उमास्वति (तत्त्वार्थ० ५.३७) और पूज्यपादने भी उसी अर्थका कथन एवं समर्थन किया है। विद्यानन्दने भी अपने तर्कवादसे उसी भेदका समर्थन किया है पर विद्यानन्दके पूर्ववर्ती अकलङ्कने गुण और पर्यायके अर्थों का भेदाभेद बतलाया है जिसका अनुकरण अमृतचन्द्रने भी किया है और वैसा ही भेदाभेद समर्थन तत्त्वार्थभाष्यकी टीकामें सिद्धसेनने भी किया है। इस बारेमें सिद्धसेन दिवाकरका एक नया प्रस्थान जैन तत्त्वज्ञानमें शुरू होता है जिसमें गुण और पर्याय दोनों शब्दोंको केवल एकार्थक ही स्थापित किया है और कहा है कि वे दोनों शब्द पर्याय मात्र हैं। दिवाकरकी अभेद समर्थक युक्ति यह है कि अागों में गुणपदका यदि पर्याय पदसे भिन्न अर्थ अभिप्रेत होता तो जैसे भगवानने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो प्रकारसे देशना की है वैसे वे तीसरी गुणार्थिक देशना भी करते । जान पड़ता है इसी युक्तिका असर हरिभद्र पर पड़ा जिससे उसने भी अभेदवाद ही मान्य रक्खा । यद्यपि देवसूरिने गुण और पर्याय दोनोंके अर्थभेद बतलानेकी चेष्टा की (प्रमाणन ५.७,८) है फिर भी जान पड़ता है उनके दिल पर भी अभेदका ही प्रभाव है। श्रा० हेमचन्द्रने तो विषयलक्षण सूत्रमै गुणपदको स्थान ही नहीं दिया और न गुण-पर्याय शब्दोंके अर्थविषयक भेदाभेदकी चर्चा ही की। इससे श्रा० हेमचन्द्रका इस बारेमें मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है कि वे भी अभेदके ही समर्थक हैं। उपाध्याय यशोविजयजीने भी इसी अभेद पक्षको स्थापित किया है। इस विस्तृत इतिहाससे इतना कहा जा सकता है कि आगम जैसे प्राचीन युगमें गुण-पर्याय दोनों शब्द प्रयुक्त होते रहे होंगे । तर्कयुग के प्रारम्भ और विकासके साथ ही साथ उनके अर्थविषयक भेद-अभेद की चर्चा शुरू हुई और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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