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अन्तःकरण — बुद्धि' के हों जैसे सांख्य-योग- वेदान्तादिके मतसे; या स्वगत ही हों जैसे बौद्धमतसे । बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञानकी उत्पत्ति में भी मन निमित्त बनता है और बहिरिन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानादि गुणों की उत्पत्ति में भी वह निमित्त बनता है । बौद्धमत के सिवाय किसीके भी मतसे इच्छा, द्वेष, ज्ञान, सुख, दुःख संस्कार आदि धर्म मनके नहीं हैं । वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और जैन के अनुसार वे गुण श्रात्मा के हैं पर सांख्य योग- वेदान्तमत के अनुसार वे गुण बुद्धि - अन्तःकरण - के ही हैं । बौद्ध दर्शन श्रात्मतत्त्व अलग न मानकर उसके स्थान में नाम - मन ही को मानता है श्रतएव उसके अनुसार इच्छा, द्वेष, ज्ञान, संस्कार आदि धर्म जो दर्शनभेदसे श्रात्मधर्म या श्रन्तःकरणधर्म कहे गए हैं वे सभी मनके ही धर्म हैं ।
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न्याय-वैशेषिक- बौद्ध आदि कुछ दर्शनों की परम्परा मनको हृदयप्रदेशवर्ती मानती है । सांख्य आदि दर्शनोंकी परम्परा के अनुसार मनका स्थान केवल हृदय कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्म --- लिङ्गशरीर में, जो अष्टादश स्वोंका विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है । और सूक्ष्मशरीरका स्थान समग्र स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है अतएव उस परम्परा के अनुसार मनका स्थान समग्र स्थूल शरीर सिद्ध होता है । जैन परम्पराके अनुसार भावमनका स्थान आत्मा ही है । पर द्रव्यमनके बारेमें पक्षभेद देखे जाते हैं । दिगम्बर पक्ष द्रव्यमनको हृदयप्रदेशवर्ती मानता है जब कि श्वेताम्बर पक्षकी ऐसी मान्यताका कोई उल्लेख नहीं दिखता। जान पड़ता हैं श्वेताम्बर परम्पराको समग्र स्थूल शरीर ही द्रव्यमनका स्थान इष्ट है ।
ई० १६३६ ]
[ प्रमाण मीमांसा
१. 'तस्माच्चित्तस्य धर्मा वृत्तयो नात्मनः । सर्वद० पात० पृ० ३५२ । २. 'ताम्रपर्णीया श्रपि हृदयवस्तु मनोविज्ञानधातोराश्रयं कल्पयन्ति ।'स्फुटा० पृ० ४१ ।
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