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________________ १२० म्पराका संग्रह कर दिया। विद्यानन्द'ने अकलंक तथा माणिक्यनन्दी की उस परम्परासे अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्तभद्रकी व्याख्याको अपने 'स्वार्थव्यवसायात्मक' जैसे शब्दमें संगृहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व' पद जो अकलंक और माणिक्यनन्दीकी व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया । विद्यानन्दका 'व्यवसायात्मक' पद जैन परम्पगके प्रमाणलक्षणमें प्रथम ही देखा जाता है पर वह अक्षपाद के प्रत्यक्षलक्षणमें तो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है । सन्मतिके टीकाकार अभयदेव ने विद्यानन्दका ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाथ' के स्थानमें 'निर्णीति' पद रखा। वादी देवसूरिने तो विद्यानंदके ही शब्दोंको दोहराया है। श्रा. हेमचन्द्रने उपर्युक्त जैन-जनेतर भिन्न-भिन्न परंपरात्रोंका औचित्य-अनौचित्य विचारकर अपने लक्षणमें केवल 'सम्यक्', 'अर्थ' और ' निय' ये तीन पद रखे । उपर्युक्त जैन परम्पराओंको देखते हुए यह कहना पड़ता है कि श्रा० हेमचन्द्रने अपने लक्षणमें काट-छाँटके द्वारा सशोधन किया है। उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्योने लक्षणमें सन्निविष्ट किया था, निकाल दिया । 'अवभास', 'व्यवसाय' श्रादि पदोंको स्थान न देकर अभयदेवके 'निर्णीति' पदके स्थानमें 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमास्वाति, धर्मकीर्ति तथा भासर्वज्ञके सम्यक् पदको अपनाकर अपना 'सम्यगर्थनिर्णय' लक्षण निर्मित किया है। आर्थिक तात्पर्यमें कोई खास मतभेद न होनेपर भी सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर श्राचार्यों के प्रमाणलक्षणमें शाब्दिक भेद है, जो किसी अंशमें विचारविकासका सूचक और किसी अंशमें तत्कालीन भिन्न-भिन्न साहित्यके अभ्यासका परिणाम है । यह भेद संक्षेपमें चार विभागोंमें समा जाता है । पहिले विभागमें 'स्व-परा. १. 'तत्स्वार्थव्यवसायात्मशान मानमितीयता । लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥' -तत्त्वार्थश्लो० १. १०. ७७. प्रमाणप० पृ० ५३. . २. 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।' -न्याय सू० १. १. ४. ३. 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम् ।' -सन्मतिटी० पृ० ५१८. ४. 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ।' -प्रमाणन० १. २. ५. 'सम्यग्दर्शनशानचरित्राणि मोक्षमार्गः।' -तत्त्वार्थ. १. १. 'सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः।' -न्यायवि. १. १. 'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् ।' -न्यायसार पृ० १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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