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संक्षिप्त परिचयं
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हो जाता । पुस्तकोंकी देखभाल इतनी अधिक करते थे कि सालभर के उपयोग के बाद भी वे बिलकुल नई-सी रहती थीं ।
गुजराती सातवीं श्रेणी पास करनेके बाद सुखलालकी इच्छा अंग्रेजी पढ़नेकी हुआ, पर उनके अभिभावकोंने तो यह सोचा कि इस होशियार लड़केको पढ़ाओके बदले व्यापार में लगा दिया जाय तो थोड़े ही अरसे में दुकानका बोझ उठानेमें यह अच्छा साझीदार बनेगा । अतः उन्हें दुकान पर बैठना पड़ा ।
धीरे धीरे सुखलाल सफल व्यापारी बनने लगे । व्यापार में उन दिनों बड़ी तेज़ी थी । परिवार के व्यवहार भी ढंगसे चल रहे थे । सगाई, शादी, मौत और जन्मके मौकों पर पैसा पानीकी तरह बहाया जाता था । अतिथि सत्कार और तिथि -त्यौहार पर कुछ भी बाक़ी न रखा जाता था। पंडितजी कहते हैं सबको मैं देखा करता । यह सब पसंद भी बहुत आता था । पर न जाने क्यों मनके किसी कोनेसे हल्की-सी आवाज़ उठती थी कि यह सब ठीक तो नहीं हो रहा है | पढ़ना-लिखना छोड़कर इस प्रकार के खर्चीले रिवाजोंमें लगे रहने से कोई भला नहीं होगा । शायद यह किसी अगम्य भावीका इंगित था ।
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चौदह वर्षकी आयु में विमाताका भी अवसान हो गया । सुखलालकी सगाई तो बचपन ही में हो गई थी । वि० सं० १९५२में पंद्रह वर्षकी अवस्था में विवाहकी तैयारियाँ होने लगीं, पर ससुरालको किसी कठिनाईके कारण उस वर्ष विवाह स्थगित करना पड़ा । उस समय किसीको यह ज्ञात नहीं था कि वह विवाह सदाके लिये स्थगित रहेगा ।
चेचक की बीमारी
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१९५३ में १६ वर्षके शरीर के रोम रोम में
व्यापार में हाथ बँटानेवाले सुखलाल सारे परिवारकी आशा बन गये थे, किन्तु मधुर लगनेवाली आशा कई बार ठगिनी बनकर धोखा दे जाती है । पंडितजीके परिवार को भी यही अनुभव हुआ । वि. सं. किशोर सुखलाल चेचकके भयंकर रोगके शिकार हुए। यह व्याधि परिव्याप्त हो गई । क्षण क्षण में मृत्युका साक्षात्कार होने लगा । जीवन-मरणका भीषण द्वन्द्व-युद्ध छिड़ा । अंत में सुखलाल विजयी हुए, पर इसमें वे अपनी आँखोंका प्रकाश खो बैठे । अपनी विजय उन्हें पराजयसे भी विशेष असह्य हो गई, और जीवन मृत्युसे भी अधिक कष्टदायी प्रतीत हुआ । नेत्रोंके अंधकारने उनकी अंतरात्माको निराशा एवं शून्यता में निमग्न कर दिया ।
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पर दुःखकी सच्ची औषधि समय हैं । कुछ दिन बीतने पर सुखलाल स्वस्थ हुए । खोया हुआ आँखोंका बाह्य प्रकाश धीरे धीरे अंतर्लोक में प्रवेश
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