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जैनदर्शनने अपनी अनेकान्त प्रकृति के अनुसार ही अपना मत स्थिर किया है । ज्ञान एवं प्रात्मा दोनोंको स्पष्ट रूपसे स्व-पराभासी कहनेवाले जैनाचार्यों में सबसे पहिले सिद्धसेन ही हैं (न्याया० ३१)। श्रा० हेमचन्द्रने सिद्धसेनके ही कथनको दोहराया है।
देवसूरिने अात्माके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए जो मतान्तरव्यावर्तक अनेक विशेषण दिये हैं (प्रमाणन० ७.५४,५५) उनमें एक विशेषण देहव्यापित्व यह भी है। श्रा० हेमचन्द्रने जैनाभिमत श्रात्माके स्वरूपको सूत्रबद्ध करते हुए भी उस विशेषणका उपादान नहीं किया। इस विशेषणत्यागसे श्रात्मपरिमाणके विषयमें (जैसे नित्यानित्यत्व विषयमें है वैसे ) कुमारिलके मतके साथ जैन मतकी एकताकी भ्रान्ति न हो इसलिए श्रा० हेमच द्रने स्पष्ट ही कह दिया है कि देहव्यापित्व इष्ट है पर अन्य जैनाचार्यों की तरह सूत्र में उसका निर्देश इसलिए नहीं किया है कि वह प्रस्तुतमें उपयोगी नहीं है । ई० १६३६ ]
[ प्रमाण मीमांसा
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