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विज्ञानवादी बौद्ध (न्यायबि० १. १०) मीमांसक, प्रभाकर' वेदान्त और जैन ये स्वप्रकाशवादी हैं। ये सब ज्ञानके स्वरूपके विषयमें एक मत नहीं क्योंकि विज्ञानवादके अनुसार ज्ञानभिन्न अर्थका अस्तित्व ही नहीं
और ज्ञान भी साकार | प्रभाकरके मतानुसार बाह्यार्थका अस्तित्व है (बृहती पृष्ठ ७४) जिसका संवेदन होता है । वेदान्तके अनुसार शान मुख्यतया ब्रह्मरूप होनेसे नित्य ही है। जैन मत प्रभाकर मतकी तरह बाह्यार्थ का अस्तित्व और ज्ञानको जन्य स्वीकार करता है। फिर भी वे सभी इस बारे में एकमत हैं कि ज्ञानमात्र स्वप्रत्यक्ष है अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष हो या अनुमिति, शब्द, स्मृति श्रादि रूप हो फिर भी वह स्वस्वरूपके विषयमें साक्षात्काररूप ही है, उसका अनुमितिस्व, शान्दव, स्मृतित्व आदि अन्य ग्राह्यकी अपेक्षासे समझना चाहिए अर्थात् भिन्न भिन्न सामग्री से प्रत्यक्ष, अनुमेय, स्मर्तव्य आदि विभिन्न विषयों में उत्पन्न होनेवाले प्रत्यक्ष, अनुमिति, स्मृति आदि ज्ञान भी स्वस्वरूपके विषयमें प्रत्यक्ष ही हैं। __ ज्ञानको परप्रत्यक्ष अर्थमें परप्रकाश माननेवाले सांख्य-योग" और न्याय वैशेषिक हैं । वे कहते हैं कि ज्ञानका स्वभाव प्रत्यक्ष होनेका है पर वह अपने आप प्रत्यक्ष हो नहीं सकता। उसकी प्रत्यक्षता अन्याश्रित है । अतएव शान चाहे प्रत्यक्ष हो, अनुमिति हो, या शब्द स्मृति आदि अन्य कोई, फिर भी वे सब स्वविषयक अनुव्यवसायके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे गृहीत होते ही हैं। पर प्रत्यक्षत्वके विषयमें इनका ऐकमत्य होनेपर भी परशब्दके अर्थके विषयमें ऐकमत्य
१. 'सर्वविज्ञानहेतूस्था मितौ मातरि च प्रमा । साक्षात्कर्तृत्वसामान्यात् प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ॥'---प्रकरणप० पृ. ५६ ।
२. भामती पृ० १६ । "सेयं स्वयं प्रकाशानुभूतिः"-श्रीभाष्य पृ० १८ । चित्सुखी पृ०६।
३. 'सहोपलम्भनियमादभेदोनीलतद्धियोः' -बृहती पृ० २६ । 'प्रकाशमानस्तादात्म्यात् स्वरूपस्य प्रकाशकः । यथा प्रकाशोऽभिमतः तथा धारात्मवेदिनी।'
प्रमाणवा० ३. ३२६ । ४. सर्वविज्ञान हेतूत्था....यावती काचिग्रहणस्मरणरूपा ।"-प्रकरणप० पृ०५६ ।
५. "सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात् । न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्"-योगसू० ४. १८, १६ ।
६. "मनोग्राह्यं सुखं दुःखमिच्छा द्वेषो मतिः कृतिः”-कारिकावली ५७ ।
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