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________________ १०६ यद्यपि जयराशिकी यह पद्धति कोई नई वस्तु नहीं है-अंशरूपमें तो वह सभी मध्यकालीन और अर्वाचीन दर्शन ग्रन्थों में विद्यमान है, पर इसमें विशेषत्व यह है कि भह जयराशिकी खण्डनपद्धति सर्वतोमुखी और सर्वव्यापक होकर निरपेक्ष है। उपसंहार यद्यपि यह तत्वोपप्लव एक मात्र खण्डनप्रधान ग्रन्थ है, फिर भी इसका और तरहसे भी उपयोग आधुनिक विद्वानोंके लिए कर्तव्य है । उदाहरणार्थ-जो लोग दार्शनिक शब्दोंका कोश या संग्रह करना चाहें और ऐसे प्रत्येक शब्दके संभवित अनेकानेक अर्थ भी खोजना चाहें, उनके लिए यह ग्रन्थ एक बनी बनाई सामग्री है। क्योंकि जयराशिने अपने समय तकके दार्शनिक ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध ऐसे सभी पारिभाषिक दार्शनिक शब्दोंका विशिष्ट ढंगसे प्रयोग किया है और साथ ही साथ 'कल्पना', 'स्मृति' श्रादि जैसे प्रत्येक शब्दोंके सभी प्रचलित अौँका निदर्शन भी किया है । अतएव यह तरवोपप्लव ग्रन्थ अाधुनिक विद्वानोंके वास्ते एक विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु है । इस परसे दार्शनिक विचारोकी तुलना करने तथा उनके ऐतिहासिक क्रमविकासको जाननेके लिए अनेक प्रकारकी बहुत कुछ सामग्री मिल सकती है। ई० १६४१] [भारतीय विद्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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