________________
१०७
ग्रन्थकारने दार्शनिकोंके उस पारस्परिक खण्डन- मण्डनकी चर्चा से किस तरह फायदा उठाया है । वे वस्तुएँ ये हैं
जाति, समवाय, श्रालम्बन, अतथ्यता, तथ्यता, स्मृतिप्रमोष, सन्निकर्ष, विषयद्वैविध्य, कल्पना, अस्पष्टता, स्पष्टता, सन्तान, हेतुफलभाव, आत्मा, कैवल्य, श्रनेकान्त, श्रवयवी, बाह्यार्थविलोप, क्षणभङ्ग, निर्हेतुकविनाश, वर्ण, पद, स्फोट और अपौरुषेयत्व ।
इनमें से 'जाति', 'समवाय', 'सन्निकर्ष', 'अवयवी', आत्मा के साथ सुखदुःखादिका संबन्ध, शब्दका अनित्यत्व, कार्यकारणभाव - आदि ऐसे पदार्थ हैं जिनको नैयायिक और वैशेषिक मानते हैं, और जिनका समर्थन उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें बहुत बल तथा विस्तारपूर्वक करके विरोधी मतोंके मन्तव्यका खण्डन भी किया है । परन्तु वे ही पदार्थ सांख्य, बौद्ध, जैन आदि दर्शनोंको उस रूपमें बिलकुल मान्य नहीं । अतः उन-उन दर्शनों में इन पदार्थोंका, अति विस्तार के साथ खण्डन किया गया है ।
'स्मृतिप्रमोष' मीमांसक प्रभाकरकी अपनी निजकी मान्यता है, जिसका खण्डन नैयायिक, बौद्ध और जैन विद्वानोंके अतिरिक्त स्वयं महामीमांसक कुमारिल अनुगामियों तकने, खूब विस्तार के साथ किया है ।
'पौरुषेयत्व' यह मीमांसक मान्यताकी स्वीय वस्तु होनेसे उस दर्शन में इसका अति विस्तृत समर्थन किया गया है; पर नैयायिक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों में इसका उतने ही विस्तारसे खण्डन पाया जाता है ।
'अनेकान्त' जैन दर्शनका मुख्य मन्तव्य है जिसका समर्थन सभी जैन तार्किकोंने बड़े उत्साहसे किया है; परंतु बौद्ध, नैयायिक, वेदान्त आदि दर्शनोंमें उसका वैसा ही प्रबल खण्डन किया गया है ।
'श्रात्म कैवल्य' जिसका समर्थन सांख्य और वेदान्त दोनों अपने ढंग से करते हैं; लेकिन बौद्ध, नैयायिक आदि अन्य सभी दार्शनिक उसका खण्डन करते हैं । 'वर्ण', 'पद' 'स्फोट' आदि शब्दशास्त्र विषयक वस्तुनोंका समर्थन जिस ढंग से वैयाकरणों ने किया है उस ढंगका, तथा कभी-कभी उन वस्तुनोंका ही, बौद्ध, नैयायिक आदि अन्य तार्किकोंने बलपूर्वक खण्डन किया है ।
'क्षणिकत्व', 'संतान', 'विषय द्वित्व', 'स्पष्टता - स्पष्टता', " निर्हेतुकविनाश', 'बाह्यार्थ विलोप', 'श्रालम्बन', 'हेतुफलसंबंध', 'कल्पना', 'तथ्यतातथ्यता' श्रादि पदार्थ ऐसे हैं जिनमें से कुछ तो सभी बौद्ध परंपराओं में, और कुछ किसी-किसी परम्परामें, मान्य होकर जिनका समर्थन बौद्ध विद्वानोंने बड़े
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org