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प्राधार है प्रमाणका यथार्थ लक्षण । परन्तु विचार करने पर जब कोई प्रमाणका लक्षण ही निर्दोष सिद्ध नहीं होता तब उसके आधार पर बतलाई जानेवाली प्रमाण प्रमेयकी व्यवस्था कैसे-मानो जा सकती है ? ऐसा कहकर, वह फिर एक-एक करके प्रमाण लक्षणका क्रमशः खण्डन करना प्रारंभ करता है। इसी तरह ग्रन्थके अन्तमें भी उसने अपने इस निर्णीत मार्गको दोहराया है और उसकी सफलता भी सूचित की है। उसने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि--'जब कोई प्रमाणलक्षण ही ठीक नहीं बनता तब सब तत्त्व आप ही आप बाधित या प्रसिद्ध हो जाते हैं । ऐसी दशामें बाधित तत्त्वोके आधारपर चलाये जानेवाले सब व्यवहार वस्तुतः अविचाररमणीय ही हैं।' अर्थात् शास्त्रीय और लौकिक अथवा इहलौकिक और पारलौकिक-सब प्रवृत्तियों की सुन्दरता सिर्फ अविचारहेतुक ही है। विचार करनेपर वे सब व्यवहार निराधार सिद्ध होनेके कारण निर्जीव जैसे शोभाहीन हैं। ग्रन्थकारने अपने निर्णयके अनुसार यद्यपि दार्शनिकोंके अभिमत प्रमाणलक्षणोंकी ही खण्डनीय रूपसे मीमांसा शुरू की है और उसीपर उसका जोर है। फिर भी वह बीच-बीचमें प्रमाण लक्षणोंके अलावा कुछ अन्य प्रमेयोंका भी खण्डन करता है। इस तरह प्रमाणलक्षणोंके खण्डनका ध्येय रखनेवाले इस ग्रन्थमें थोड़ेसे अन्य प्रमेयोंका भी खण्डन मिलता है।
(२) न्याय, मीमांसा, सांख्य, बौद्ध, वैयाकरण और पौराणिक इन छह दर्शनोंके अभिमत लक्षणोंको, ग्रन्थकारने खण्डनीय रूपसे लिया है। इनमेंसे कुछ लक्षण ऐसे हैं जो प्रमाणसामान्यके हैं और कुछ ऐसे हैं जो विशेष विशेष प्रमाणके हैं । प्रमाणसामान्यके लक्षण सिर्फ मीमांसा और बौद्ध-इन दो दर्शनोंके लिये गर है। मीमांसासम्मत प्रमाणसामान्य लक्षण जो ग्रन्थकारने लिया है वह कुमारिलका माना जाता है, फिर मी इसमें संदेह नहीं कि वह लक्षण पूर्ववर्ती अन्य मीमांसकोंको भी मान्य रहा होगा। ग्रन्थकारने बौद्ध दर्शनके प्रमाणसामान्य संबंधी दो लक्षण चर्चा के लिये हैं जो प्रगट रूपसे धर्मकीर्तिके माने जाते हैं, पर जिनका मूल दिङ्नागके विचारमें भी अवश्य है।
विशेष प्रमाणोंके लक्षण जो ग्रन्थमें पाए हैं वे न्याय,मीमांसा, सांख्य, बौद्ध, पौराणिक और वैयाकरणोंके हैं।
१ देखो पृ० २२ और २७ । २ देखो, पृ० २७ और २८ ।
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