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१०३ भी इसी पक्ष के अन्तर्गत हैं, क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मन दोनोंका प्रमाणसामर्थ्य मानते हैं ।
४. आगमाधिपत्य पक्ष वह है जो किसी-न-किसी विषय में श्रागमके सिवाय किसी इन्द्रिय या अनिन्द्रियका प्रमाणसामर्थ्य स्वीकार नहीं करता । यह पक्ष केवल पूर्वमीमांसाका हो है । यद्यपि वह अन्य विषयोंमें सांख्ययोगादिकी तरह उभयाधिपत्य पक्षका ही अनुगामी है, फिर भी धर्म और धर्म इन दो विषयों में वह श्रागम मात्रका ही सामर्थ्य मानता है । यों तो वेदान्त के अनुसार ब्रह्मके विषय में भी आगमका ही प्राधान्य है; फिर भी वह श्रागमाधिपत्य पक्ष में इस लिए नहीं आ सकता कि ब्रह्म विषय में ध्यानशुद्ध अन्तःकरणका भी सामर्थ्य उसे मान्य है ।
इस तरह, चार्वाक मान्यता इन्द्रियाधिपत्य पक्षकी अनुवर्तिनी ही सर्वत्र मानी जाती है । फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ उस मान्यता के विषय में एक नया प्रस्थान उपस्थित करता है । क्योंकि इसमें इन्द्रियोंकी यथार्थज्ञान उत्पन्न करनेकी शक्तिका भी खण्डन किया गया है और लौकिक प्रत्यक्ष तकको भी प्रमाण मानने से इन्कार कर दिया है । अतएव प्रस्तुत ग्रन्थके अभिप्रायसे चार्वाक मान्यता दो विभागों में बँट जाती है । पूर्वकालीन मान्यता इन्द्रियाधिपत्य पक्ष में जाती है, और जयराशिकी नई मान्यता प्रमाणोपप्लव पक्ष में आती है ।
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( उ ) चार्वाक मान्यता का कोई पूर्ववर्ती ग्रन्थ अखण्ड रूपसे उपलब्ध नहीं है । अन्य दर्शन ग्रन्थों में पूर्वपक्ष रूप से चार्वाक मतके मन्तव्य के साथ कहींकहीं जो कुछ वाक्य या सूत्र उद्धृत किये हुए मिलते हैं, यही उसका एक मात्र साहित्य है । यह भी जान पड़ता है कि चार्वाक मान्यताको व्यवस्थित रूपसे लिखनेवाले विद्वान् शायद हुए ही नहीं । जो कुछ बृहस्पतिने कहा उसीका छिन्नभिन्न अंश उस परम्पराका एक मात्र प्राचीन साहित्य कहा जा सकता है । उसी साहित्य के श्राधार पर पुराणों में भी चार्वाक मतको पल्लवित किया गया है । आठवीं सदीके जैनाचार्य हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चय में और तेरहवीं-चौदहवीं सदीके माधवाचार्य कृत सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक मतके वर्णनके साथ कुछ पद्य उद्धृत मिलते हैं । पर जान पड़ता है, कि ये सब पद्य, किसी चार्वा - काचार्यकी कृति न होकर, और और विद्वानोंके द्वारा चार्वाक मत वर्णन रूपसे वे समय-समय पर बने हुए हैं ।
इस तरह चार्वाक दर्शनके साहित्य में प्रस्तुत ग्रन्थका स्थान बड़े महस्वका है । क्योंकि यह एक ही ग्रन्थ हमें ऐसा उपलब्ध है जो चार्वाक मान्यताका अखण्ड ग्रन्थ कहा जा सकता है।
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