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हर
और अन्त मिलाकर कुल तीन ही पद्य इसमें मिलते हैं। बाकी सारा ग्रन्थ सरल गद्यमें है । भाषा प्रसन्न और वाक्य छोटे-छोटे हैं । फिर भी इसमें जो कुछ दुरूहता या जटिलता प्राप्त होती है, वह विचारकी अति सूक्ष्मता और एकके बाद दूसरी ऐसी विकल्पों की झड़ीके कारण है ।
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शैली - प्रस्तुत प्रन्थकी शैली वैतण्डिक है । वैतडिक शैली वह है जिसमें वितण्डा कथाका आश्रय लेकर चर्चा की गई हो । वितण्डा यह कथा के तीन प्रकारों का एक प्रकार है । दार्शनिक साहित्य में वितण्डा कथाका क्या स्थान है, और वैतडिक शैलीके साहित्य में प्रस्तुत ग्रन्थका क्या स्थान है, इसे समझने के लिए नीचे लिखी बातोंपर थोड़ा-सा ऐतिहासिक विचार करना आवश्यक है ।
( अ ) कथा के प्रकार एवं उनका पारस्परिक अन्तर ।
(इ) दार्शनिक साहित्य में वितण्डा कथाका प्रवेश और विकास |
( उ ) वैतडिक शैली के ग्रन्थों में प्रस्तुत ग्रन्थका स्थान |
( अ ) दो व्यक्तियों या दो समूहोंके द्वारा की जानेवाली चर्चा, जिसमें दोनों अपने-अपने पक्षका स्थापन और विरोधी परपक्षका निरसन, युक्ति से करते हों, कथा कहलाती है । इसके बाद, जल्प और वितण्डा ऐसे तीन प्रकार हैं, जो उपलब्ध संस्कृत साहित्य में सबसे प्राचीन अक्षपाद के सूत्रों में लक्षणपूर्वक निर्दिष्ट हैं । वादकथा' वह है जो केवल सत्य जानने और जतलाने के अभिप्रायसे की जाती है। इस कथाका श्रान्तरिक प्रेरक तत्त्व केवल सत्यजिज्ञासा है | जल्पकथा वह है जो विजयकी इच्छा से या किसी लाभ एवं ख्याति की
१. कथा से संबंध रखनेवाली अनेक ज्ञातव्य बातोंका परिचय प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवालों के लिए गुजराती में लिखा हुआ हमारा 'कथापद्धतिनुं स्वरूप अने तेना साहित्यनुं दिग्दर्शन' नामक सुविस्तृत लेख ( पुरातत्व, पुस्तक ३, पू० १६५ ) उपयोगी है। इसी तरह उनके वास्ते हिन्दीमें स्वतंत्रभावसे लिखे हुए हमारे वे विस्तृत टिप्पण भी उपयोगी हैं जो 'सिंघी ज़ैन ग्रन्थमाला' में प्रकाशित 'प्रमाणमीमांसा' के भाषाटिप्पणोंमें, पृ० १०८ से पृ० १२३ तक अंकित हैं।
२. ‘प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः । यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थान साधनोपालम्भो जल्पः । स्वप्रतिपचस्थापनाहीनो वितण्डा । न्यायसूत्र १. २.१ - ३ ।
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