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खण्डित हो गया हैं, तथापि दैवयोग से इस शार्दूलविक्रीडित पद्यका एक पाद बच गया है जो शायद उस पद्यका अंतिम अर्थात् चौथा ही पाद है; और जिसमें ग्रन्थकारने ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा करते हुए इसका नाम भी सूचित कर दिया है । ग्रंथकारने जो तत्त्वोपप्लवसिंह ऐसा नाम रखा है और इस नामके साथ जो 'विषमः' तथा 'मया सृज्यते' ऐसे पद मिल रहे हैं, इससे जान पड़ता है कि इस पद्य के अनुपलब्ध तीन पादों में ऐसा कोई रूपकका वर्णन होगा जिसके साथ 'सिंह' शब्दका मेल बैठ सके । हम दूसरे अनेक ग्रंथोंके प्रारम्भमें ऐसे रूपक पाते हैं जिनमें ग्रन्थकारोंने अपने दर्शनको 'केसरी सिंह' या 'अग्नि' कहा है और प्रतिवादी या प्रतिपक्षभूत दर्शनों को 'हरिण' या 'ईंधन' कहा है । प्रस्तुत ग्रंथकारका अभिप्रेत रूपक भी ऐसा ही कुछ होना चाहिए, जिसमें कहा गया होगा कि सभी श्रास्तिक दर्शन या प्रमाणप्रमेयवादी दर्शन मृगप्राय हैं और प्रस्तुत तत्वोपप्लव ग्रन्थ उनके लिए एक विषम-भयानक सिंह है । अपने विरोधी के ऊपर या शिकारके ऊपर आक्रमण करनेकी सिंहकी निर्दयता सुविदित है । इसी तरह प्रस्तुत ग्रन्थ भी सभी स्थापित संप्रदायोंकी मान्यताओं का निर्दयतापूर्वक निर्मूलन करनेवाला है । तस्वोपप्लवसिंह नाम रखने तथा रूपक करने में ग्रन्थकारका यही भाव जान पड़ता है । तत्वोपप्लवसिंह यह पूरा नाम ई० १३१४वीं शताब्दी के जैनाचार्य मल्लिणकी कृति स्याद्वादमञ्जरी ( पृ० ११८ ) में भी देखा जाता है । अन्य ग्रन्थोंमें जहाँ कहीं प्रस्तुत ग्रन्थका नाम आया है वहीँ प्रायः तत्वोपप्लव १ इतना ही संक्षिप्त नाम मिलता है । जान पड़ता है पिछले ग्रन्थकारोंने संक्षेप में तत्वोपप्लव नामका ही प्रयोग करने में सुभीता देखा हो ।
उद्देश्य - प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना करनेमें ग्रन्थकार के मुख्यतया दो उद्देश्य जान पड़ते हैं जो अंतिम भागसे स्पष्ट होते हैं । इनमें से, एक तो यह, कि अपने सामने मौजूद ऐसी दार्शनिक स्थिर मान्यताओं का समूलोच्छेद करके यह बतलाना, कि शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है और उनके द्वारा जो कुछ स्थापन किया जाता है, वह सब परीक्षा करनेपर निराधार सिद्ध होता है । अतएव शास्त्रजीवी सभी व्यवहार, जो सुन्दर व आकर्षक मालूम होते हैं, श्रविचार के
१. “श्रीवीरः स जिनः श्रिये भवतु यत् स्याद्वाददावानले, भस्मीभूत कुतर्क काष्ठ निकरे तृएयन्तिसर्वेऽप्यहो ।"
- षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्नटीका, पृ० १
२. सिद्धिविनिश्चय, पृ० २८८ ।
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