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________________ 記 निक तो पूरा है। उसके अभ्यासका विषय भी कोई एक दर्शन, या किसी एक दर्शनका मुक ही साहित्य नहीं है, पर उसने अपने समय में पाए जानेवाले सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध दर्शनोंके प्रधान प्रधान ग्रन्थ श्रवश्य देखे जान पड़ते हैं । उसने खण्डनीय ऐसे सभी दर्शनोंके प्रधान ग्रन्थोंको केवल स्थूल रूपसे देखा ही नहीं है, परन्तु वह खण्डनीय दर्शनोंके मन्तव्योंको वास्तविक एवं गहरे अभ्यासके द्वारा पी गया-सा जान पड़ता है । वह किसी भी दर्शन के अभिमत प्रमाणलक्षणकी या प्रमेयतत्वकी जब समालोचना करता है तब मानों उस खण्डनीय तत्वको, अर्जुनकी तरह, सैकड़ों ' ही विकल्प बाणोंसे, व्याप्त कर देता है । जयराशि के उठाए हुए प्रत्येक विकल्पका मूल किसी न किसी दार्शनिक परम्परामें अवश्य देखा जाता है। उससे उसके दार्शनिक विषयोंके तलस्पर्शी अभ्यास के बारे में तो कोई सन्देह ही नहीं रहता । जयराशिको अपना तो कोई पक्ष स्थापित करना है ही नहीं; उसको तो जो कुछ करना है वह दूसरोंके माने हुए सिद्धान्तों का खण्डन मात्र । श्रतएव वह जब तक, अपने समय पर्यन्तमें मौजूद और प्रसिद्ध सभी दर्शनोंके मन्तव्योंका थोड़ा-बहुत खण्डन न करे तब तक, वह अपने ग्रन्थके उद्द ेश्यको, अर्थात् समग्र तत्त्वोंके खण्डनको, सिद्ध ही नहीं कर सकता। उसने अपना यह उद्देश्य तत्त्वोपप्लव ग्रन्थके द्वारा सिद्ध किया है, t इससे सूचित होता है कि वह समग्र भारतीय दर्शन परम्पराओंका तलस्पर्शी अभ्यासी था । वह एक-एक करके सब दर्शनोंका खण्डन करनेके बाद अन्त में वैयाकरण दर्शनकी ' भी पूरी खबर लेता है । जयराशिने वैदिक, जैन और बौद्ध – इन तीनों संप्रदायोंका खण्डन किया है । और फिर वैदिक परम्परा अन्तर्गत न्याय, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त और व्याकरण दर्शनका भी खण्डन किया है । जैन संप्रदायको उसने दिगम्बर शब्द से उल्लिखित किया है । ३ , १. 'केयं कल्पना १ किं गुणचलन जात्यादिविशेषणोत्पादितं विज्ञानं कल्पना, ग्रहो स्मृत्युत्पादकं विज्ञानं कल्पना, स्मृतिरूपं वा स्मृत्युत्पाद्यं वा, अभिलापसंसर्गनिर्भासो वा अभिलापवती प्रतीतिर्वा कल्पना, अस्पष्टाकारा वा, तात्त्विकार्थगृहीतिरूपा वा, स्वयं वाऽतात्त्विकी, त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदृग्बा, श्रतीतानागतार्थनिर्भासा वा ?' - एक कल्पनाके विषय में ही इतने विकल्प करके और फिर प्रत्येक विकल्पको लेकर भी उत्तरोत्तर अनेक विकल्प करके जयराशि उनका खण्डन करता है । - तत्त्वो० पृ० ३२ । २. तवोपप्लव, पृ० १२० । ३. पृ० ७६ । Jain Education International "" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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