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कहना होगा कि यह भट्ट विशेषण जयराशिकी ब्राह्मण सांप्रदायिकताका ही द्योतक होना चाहिए।
इसके सिवा, जयराशिके पिता-माता या गुरु-शिष्य इत्यादिके संबन्धमें कुछ भी पता नहीं चलता। फिर भी जयराशिका बौद्धिक मन्तव्य क्या था यह बात इसके प्रस्तुत ग्रन्थसे. स्पष्ट जानी जा सकती है। जयराशि एक तरहसे बहस्पतिके चार्वाक संप्रदायका अनुगामी है; फिर भी वह चार्वाकके सिद्धान्तोंको अक्षरशः नहीं मानता। चार्वाक सिद्धान्तमें पृथ्वी आदि चार भूतोंका तथा मुख्य रूपसे प्रत्यक्ष विशिष्ट प्रमाणका स्थान है । पर जयराशि न प्रत्यक्ष प्रमाणको ही मानता है और न भूत तत्त्वोंको ही। तब भी वह अपनेको चार्वाकानुयायी जरूर मानता है । अतएव ग्रन्थके श्रारम्भमें ' ही बृहस्पतिके मन्तव्यके साथ अपने मन्तव्यकी श्रानेवाली असंगतिका उसने तर्कशुद्ध परिहार भी किया है। उसने अपने मन्तव्यके बारेमें प्रश्न उठाया है, कि बृहस्पति जब चार तत्त्वोंका प्रतिपादन करता है, तब तुम ( जयराशि ) तत्त्वमात्रका खण्डन कैसे करते हो ? अर्थात् बृहस्पतिकी परम्पराके अनुयायीरूपसे कम-से-कम चार तत्त्व तो तुम्हें अवश्य मानने ही चाहिए। इस प्रश्नका जबाब देते हुए जयराशिने अपनेको बृहस्पतिका अनुयायी भी सूचित किया है और साथ ही बृहस्पतिसे एक कदम आगे बढ़नेवाला भी बतलाया है । वह कहता है कि-बृहस्पति जो अपने सूत्रमें चार तत्त्वोंको गिनाता है, वे इसलिए नहीं कि वह खुद उन तत्त्वोंको मानता है। सूत्रमें चार तत्त्वोंके गिनाने अथवा तत्त्वोंके व्याख्यानकी प्रतिज्ञा करनेसे बृहस्पतिका मतलब सिर्फ लोकप्रसिद्ध तत्त्वोंका निर्देश करना मात्र है। ऐसा करके बृहस्पति यह सूचित करता है, कि साधारण लोकमें प्रसिद्ध और माने जानेवाले पृथ्वी आदि चार तत्व भी जब सिद्ध हो नहीं सकते, तो फिर अप्रसिद्ध और अतीन्द्रिय आत्मा आदि तत्त्वोंकी तो बात ही क्या ? बृहस्पतिके कुछ सूत्रोंका उल्लेख करके और उसके अाशयके साथ अपने नए प्रस्थानकी
आनेवाली असंगतिका परिहार करके जयराशिने भारत-वर्षीय प्राचीन गुरुशिष्य भावकी प्रणालीका ही परिचय दिया है । भारतवर्षके किसी भी संप्रदाय
१. 'ननु यदि उपप्लवस्तत्त्वानां किमाया....; अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः'; 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा इत्यादि ? न अन्यार्थत्वात् । किमर्थम् ? प्रतिबिम्बनार्थम् । किं पुनरत्र प्रतिबिम्ब्यते ? पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि, तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते, किं पुनरन्यानि ?'-तत्त्वो० पृ० १, पं० १० ।
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