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तार्किकदृष्टिके अनुसार भी जैनपरम्परामें दर्शनके प्रमात्व या अप्रमात्वके बारेमें कोई एकवाक्यता नहीं । सामान्यरूपसे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर सभी तार्किक दर्शन को प्रमाण कोटिसे बाहर ही रखते हैं। क्योंकि वे सभी बौद्ध. सम्मत निर्विकल्पकके प्रमात्व का खण्डन करते हैं और अपने-अपने प्रमाण लक्षणमें विशेषोपयोगबोधक ज्ञान, निर्णय आदि पद दाखिल करके सामान्य उपयोगरूप दर्शन को प्रमाणलक्षणका अलक्ष्य ही मानते हैं। इस तरह दर्शनको प्रमाण न माननेकी तार्किक परम्परा श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी ग्रन्थों में साधारण है । माणिक्यनन्दी और वादी देवसूरिने तो दर्शनको न केवल प्रमाणबाह्य ही रखा है बल्कि उसे प्रमाणाभास (परी०६. २ । प्रमाणन० ६. २४, २५) भी कहा है।
सन्मतिटीकाकार अभयदेवने ( सन्मतिटी० पृ० ४५७) दर्शनको प्रमाण कहा है पर वह कथन तार्किक ष्टिसे न समझना चाहिए। क्योंकि उन्होंने अागमानुसारी सन्मतिकी व्याख्या करते समय आगमदृष्टि ही लक्ष्यमें रखकर दर्शनको सम्यग्दर्शन अर्थमें प्रमाण कहा है, न कि तार्किकदृष्टिसे विषयानुसारी प्रमाण । यह विवेक उनके उस सन्दर्भसे हो जाता है।
अलबत्ता उपाध्याय यशोविजयजीके दर्शनसम्बन्धी प्रामाण्य-अप्रामाण्य विचारमें कुछ विरोध सा जान पड़ता है। एक ओर वे दर्शनको व्यञ्जनावग्रहअनन्तरभावी नैश्चयिक अवग्रहरूप बतलाते हैं । जो मतिव्यापार होनेके कारण प्रमाण कोटिमें आ सकता है। और दूसरी ओर वे वादीदेवसूरिके प्रमाणलक्षणवाले सूत्रकी व्याख्यामें ज्ञानपदका प्रयोजन बतलाते हुए दर्शनको प्रमाणकोटिसे बहिर्भूत बतलाते हैं (तर्कभाषा पृ० १ ।) इस तरह उनके कथनमें जहाँ एक
ओर दर्शन बिलकुल प्रमाणबहिभूत है वहाँ दूसरी ओर अवग्रह रूप होनेसे प्रमाणकोटिमें आने योग्य भी है । परन्तु जान पड़ता है उनका तात्पर्य कुछ और है। और सम्भवतः वह तात्पर्य यह है कि मत्यंश होनेपर भी नैश्चयिक अवग्रह प्रवृत्ति-निवृत्तिव्यवहारक्षम न होनेके कारण प्रमाण रूप गिना ही न जाना चाहिए । इसी अभिप्रायसे उन्होंने दर्शनको प्रमाणकोटिबहिर्भूत बहलाया है ऐसा मान लेनेसे फिर कोई विरोध नहीं रहता।
प्राचार्य हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसामें दर्शनसे संबन्ध रखनेवाले विचार तीन
१ लघो परी १.३ । प्रमेयक० पृ.८ । प्रमाणन. १.२ २ तर्कभाषा पृ० ५ । ज्ञान बिन्दु पृ.१३८ ।
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