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________________ ७१ झुकता है । मानों दार्शनिक अभ्यासका उद्देश्य या तो प्रधानतया श्राजीविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास | इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दार्शनिक गुलाम बन जाता है या सुखशील । इस तरह जहाँ दर्शन शाश्वत अमरताकी गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण मृत्युकी गाथा सिखाकर अभयका संकेत करता है वहाँ उसके अभ्यासी हम निरे भीरु बन गए हैं । जहाँ दर्शन हमें सत्यासत्यका विवेक सिखाता है वहाँ हम उलटे असत्यको समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उसका परिहार करनेके विचारसे ही काँप उठते हैं । दर्शन जहाँ दिन-रात आत्मैक्य या श्रात्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम भेद-प्रभेदोंको और भी विशेष रूपसे पुष्ट करने में ही लग जाते हैं । यह सब विपरीत परिणाम देखा जाता है । इसका कारण एक ही है और वह है दर्शन के अध्ययन के उद्देश्यको ठीक-ठीक न समझना । दर्शन पढ़नेका अधिकारी वही हो सकता है और उसे ही पढ़ना चाहिए कि जो सत्यासत्यके विवेकका सामर्थ्य प्राप्त करना चाहता हो और जो सत्यके स्वीकारकी हिम्मतकी अपेक्षा असत्यका परिहार करनेकी हिम्मत या पौरुष सर्व प्रथम और सर्वाधिक प्रमाण में प्रकट करना चाहता हो । संक्षेप में दर्शनके श्रध्ययनका एक मात्र उद्देश्य है जीवनकी बाहरी और भीतरी शुद्धि । इस उद्देश्यको सामने रखकर ही उसका पठन-पाठन जारी रहे तभी वह मानवताका पोषक बन सकता है । दूसरी बात है दार्शनिक प्रदेश में नए संशोधनोंकी। अभी तक यही देखा जाता है कि प्रत्येक सम्प्रदाय में जो मान्यताएँ और जो कल्पनाएँ रूढ़ हो गई हैं उन्हींको उस सम्प्रदाय में सर्वज्ञ प्रणीत माना जाता है और आवश्यक नए विचारप्रकाशका उनमें प्रवेश ही नहीं होने पाता । पूर्व - पूर्व पुरखोंके द्वारा किये गए और उत्तराधिकारमें दिये गए चिन्तनों तथा धारणाओं का प्रवाह ही सम्प्रदाय है । हर एक सम्प्रदायका माननेवाला अपने मन्तव्यों के समर्थन में ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकी प्रतिष्ठाका उपयोग तो करना चाहता है, पर इस दृष्टिका उपयोग वहाँ तक ही करता है जहाँ उसे कुछ भी परिवर्तन न करना पड़े । परिवर्तन और संशोधन के नामसे या तो सम्प्रदाय घबड़ाता है या अपने में पहले से ही सब कुछ होनेकी डींग हाँकता है । इसलिए भारतका दार्शनिक पीछ पड़ गया । जहाँ-जहाँ वैज्ञानिक प्रमेयोंके द्वारा या वैज्ञानिक पद्धतिके द्वारा दार्शनिक विषयों में संशोधन करनेकी गुंजाइश हो वहाँ सर्वत्र उसका उपयोग अगर न किया जाएगा तो यह सनातन दार्शनिक विद्या केवल पुराणोंकी ही वस्तु रह जाएगी । श्रतएव दार्शनिक क्षेत्र में संशोधन करनेको प्रवृत्तिकी श्रीर भी झुकाव होना जरूरी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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