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________________ रखने और उसका समर्थन करनेके लिए सभी सम्प्रदायोंको कल्पनाओंका, दलीलोंका तथा तौंका सहारा लेना पड़ा। सभी साम्प्रदायिक तस्व-चिन्तक अपने-अपने विश्वासकी पुष्टिके लिए कल्पनाओंका सहारा पूरे तौरसे लेते रहे फिर भी यह मानते रहे कि हम और हमारा सम्प्रदाय जो कुछ मानते हैं वह सब कल्पना नहीं किन्तु साक्षात्कार है। इस तरह कल्पनाओंका तथा सत्य-असत्य और अर्ध सत्य तोंका समावेश भी दर्शनके अर्थमें हो गया। एक तरफसे जहाँ सम्प्रदायने मूल दर्शन याने साक्षात्कारकी रक्षा की और उसे स्पष्ट करनेके लिये अनेक प्रकारके चिन्तनको चालू रखा तथा उसे व्यक्त करनेकी अनेक मनोरम कल्पनाएँ की, वहाँ दूसरी तरफसे सम्प्रदायकी बाइपर बढ़ने तथा फूलनेफलनेवाली तत्व-चिन्तनकी बेल इतनी पराश्रित हो गई कि उसे सम्प्रदायके सिवाय कोई दूसरा सहारा ही न रहा । फलतः पर्दबन्द पद्मिनियोंकी तरह तत्व-चिन्तनकी बेल भी कोमल और संकुचित दृष्टिवाली बन गई । ___ हम साम्प्रदायिक चिन्तकोंका यह झुकाव रोज देखते हैं कि वे अपने चिन्तन में तो कितनी ही कमी या अपनी दलीलोंमें कितना ही लचरपन क्यों न हो उसे प्रायः देख नहीं पाते । और दूसरे विरोधी सम्प्रदायके तत्व-चिन्तनोंमें कितना ही साद्गुण्य और वैशद्य क्यों न हो उसे स्वीकार करने में भी हिचकिचाते हैं। साम्प्रदायिक तत्व-चिन्तनोंका यह भी मानस देखा जाता है कि वे सम्प्रदायान्तरके प्रमेयोंको या विशेष चिन्तनोंको अपना कर भी मुक्त कण्ठसे उसके प्रति कृतज्ञता दर्शानेमें हिचकिचाते हैं। दर्शन जब साक्षात्कारकी भूमिकाको लाँघकर विश्वासकी भूमिकापर आया और उसमें कल्पनाओं तथा सत्यासत्य तोंका भी समावेश किया जाने लगा, तब दर्शन साम्प्रदायिक संकुचित दृष्टियोंमें आवृत होकर, मूलमें शुद्ध आध्यात्मिक होते हुए भी अनेक दोषोंका पुञ्ज बन गया । अब तो पृथक्करण करना ही कठिन हो गया है कि दार्शनिक चिन्तनोंमें क्या कल्पनामात्र है, क्या सत्य तर्क है, या क्या असत्य तर्क है ? हरएक सम्प्रदायका अनुयायी चाहे वह अपढ़ हो, या पढ़ा-लिखा, विद्यार्थी एवं पण्डित, यह मानकर ही अपने तत्वचिन्तक ग्रंथोंको सुनता है या पढ़ता-पढ़ाता है, कि इस हमारे तस्वग्रन्थ में जो कुछ लिखा गया है वह अक्षरशः सत्य है, इसमें भ्रान्ति या सन्देहको अवकाश ही नहीं है तथा इसमें जो कुछ है वह दूसरे किसी सम्प्रदायके ग्रन्थमें नहीं है और अगर है तो भी वह हमारे सम्प्रदायसे ही उसमें गया है। इस प्रकारकी प्रत्येक सम्प्रदायकी अपूर्ण में पूर्ण मान लेनेकी प्रवृत्ति इतनी अधिक बलवती है कि अगर इसका कुछ इलाज न हुआ तो मनुष्य जातिके उपकार के लिये प्रवृत्त हुआ यह दर्शन मनुष्यताका ही घातक सिद्ध होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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