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________________ ६३ रहना चाहिए । विचार व अभ्यासका क्षेत्र अनुकूल परिस्थितिकी तरह प्रतिकूल परिस्थिति में भी विस्तृत होता है । मुझको श्रापके लेखसे तथा थोड़ेसे वैयक्तिक परिचयसे मालूम होता है कि आपने किसी बुरी नियतसे या स्वार्थ से नहीं लिखा है । लेखकी वस्तु तो बिल्कुल सही है । इस स्थिति में जितना विरोध हो, श्रापकी परीक्षा ही है । समभाव और अभ्यासकी वृद्धि के साथ लेखमें चर्चित मुद्दोंपर आगे भी विशेष लिखना धर्म हो जाता है । हाँ, जहाँ कोई गलती मालूम हो, कोई बतलाए, फौरन सरलता से स्वीकार कर लेने की हिम्मत भी रखना । बाकी जो-जो काम खास कर सार्वजनिक काम, धनाश्रित होंगे वहाँ धन अपने विरोधियोंको चुप करनेका प्रयत्न करेगा ही । इसीसे मैंने श्राप नवयुवकोंके समक्ष कहा था कि पत्र-पत्रिकादि स्वावलम्बनसे चलाओ । प्रेस श्रादिमें धनिकों का आश्रय उतना वांछनीय नहीं । कामका प्रमाण थोड़ा होकर भी जो स्वावलम्बी होगा वही ठोस और निरुपद्रव होगा । हाँ, सब घनी एकसे नहीं होते । विद्वान् भी, लेखक भी स्वार्थी, खुशामदी होते हैं । कोई बिलकुल सुयोग्य भी होते हैं । धनिकों में भी सुयोग्य व्यक्तिका अत्यन्त अभाव नहीं । धन स्वभावसे बुरी वस्तु नहीं जैसे विद्या भी । अतएव अगर सामाजिक प्रवृत्ति में पड़ना हो तब तो हरेक युवक के वास्ते जरूरी है कि वह विचार एवं अभ्यास से स्वावलम्बी बने और थोड़ी भी अपनी आमदनी पर ही कामका हौसला रखे । गुणग्राही धनिकोंका आश्रय मिल जाए तो वह लाभमें समझना । इस दृष्टिसे आगे लेखन प्रवृत्ति करनेसे फिर क्षोभ होने का कोई प्रसङ्ग नहीं श्राता । बाकी समाज, खास कर मारवाड़ी समाज इतना विद्या- विहीन और असहिष्णु है कि शुरू-शुरू में उसकी ओर से सब प्रकार के विरोधोंको सम्भव मान ही रखना चाहिए, पर वह समाज भी इस जमाने में अपनी स्थिति इच्छा या अनिच्छा से बदल ही रहा है । उसमें भी पढ़े लिखे बढ़ रहे हैं । श्रागे वही सन्तान अपने वर्तमान पूर्वजों की कड़ी समीक्षा करेगी, जैसी श्रापने की है । [ सवाल नवयुवक ८-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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