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________________ पुष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। साम्प्रदायिक दाताओंकी मनोवृत्तिको जीतनेके वास्ते उच्चविद्याके क्षेत्रमें भी साम्प्रदायिकताका दिखावा संचालकोंको करना पड़ता ही है। उस लिये मेरे विचारसे तो उच्चतम अध्ययनके केन्द्रोंमें सर्पविद्याओंकी आवश्यक सामग्री होनी ही चाहिए । शास्त्रीय परिभाषामें लोकजीवनकी छाया - अब अन्तमें मैं संक्षेपमें यह दिखाना चाहता हूँ कि उस पुराने युगके राज्यसंघ और धर्मसंघका अापसमें कैसा चोली-दामनका संबन्ध रहा है जो अनेक शब्दोंमें तथा · तत्त्वज्ञानकी परिभाषाओंमें भी सुरक्षित है। हम जानते हैं कि वज्जीओंका राज्य गणराज्य था अर्थात् वह एक संघ था। गण और संघ शब्द ऐसे समूहके सूचक हैं जो अपना काम चुने हुए योग्य सभ्योंके द्वारा करते थे। वही बात धर्मक्षेत्रमें भी थी। जैनसंघ भी भिक्षु-भिक्षुणी, श्रावक श्राविका चतुर्विध अनौसे ही बना और सब अझोंकी सम्मतिसे ही काम करता रहा । जैसे-जैसे जैनधर्मका प्रसार अम्यान्य क्षेत्रोंमें तथा छोटे-बड़े सैकड़ोंहजारों गाँवोंमें हुअा वैसे-वैसे स्थानिक संघ भी कायम हुए जो श्राज तक कायम हैं। किसी भी एक कस्बे या शहरको लीजिए अगर वहाँ जैन बस्ती है तो उसका वहाँ संघ होगा और सारा धार्मिक कारोबार संघके जिम्मे होगा। संघका कोई मुखिया मनमानी नहीं कर सकता। बड़ेसे बड़ा प्राचार्य भी हो तो भी उसे संघके अधीन रहना ही होगा। संघसे बहिष्कृत व्यक्तिका कोई गौरव नहीं । सारे तीर्थ, सारे धार्मिक, सार्वजनिक काम संघकी देखरेख में ही चलते हैं। और उन इकाई संघोके मिलनसे प्रान्तीय और भारतीय संघोंकी घटना भी अाज तक चली आती है। जैसे गणराज्यका भारतव्यापी संघराज्यमें विकास हुआ वैसे ही पार्श्वनाथ और महावीर के द्वारा संचालित उस समयके छोटे बड़े संघोंके विकासस्वरूपमें श्राजकी जैन संघव्यवस्था है। बुद्धका संध भी वैसा ही है। किसी भी देशमें जहाँ बौद्ध धर्म है वहाँ संघ व्यवस्था है और सारा धार्मिक व्यवहार संघोंके द्वारा ही चलता है । जैसे उस समयके राज्यों के साथ गण शब्द लगा था वैसे ही महावीरके मुख्य शिष्योंके साथ 'गण' शब्द प्रयुक्त है। उनके ग्यारह मुख्य शिष्य जो बिहारमें ही जन्मे थे वे गणधर कहलाते हैं। श्राज भी जैन परम्परामें 'गणी' पद कायम है और बौद्ध परम्परामें संघ स्थविर या संघनायक पद। जैन तत्त्वज्ञानकी परिभाषाओंमें नयवादकी परिभाषाका भी स्थान है । नय पूर्ण सत्यकी एक बाजूको जाननेवाली दृष्टिका नाम है। ऐसे नयके सात प्रकार जन शास्त्रोंमें पुराने समयसे मिलते हैं जिनमें प्रथम नयका नाम है 'नैगम' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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