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________________ भारतमें जन्मा और पला मुसलमान मक्का मदीनाके मुसलमान अरबोंसे घनि. छता मानेगा। यह स्थिति सब धर्मों की अकसर देखी जाती है। गुजरात, राजस्थान, दूर दक्षिण, कर्णाटक आदि के जैन कितनी ही बातों में भिन्न क्यों न हों पर वे सब भगवान् महावीरके धर्मानुयायीके नाते अपने में पूर्ण एकताका अनुभव करते हैं। भगवान् महावीरके अहिंसाप्रधान धर्मका पोषण, प्रचार वैशाली और विदेहमें ही मुख्यतया हुअा है। जैसे चीनी बर्मी अादि बौद्ध, सारनाथ, गया आदि को अपना ही स्थान समझते हैं, वैसे ही दूर-दूरके जैन महावीरके जन्मस्थान वैशालीको भी मुख्य धर्मस्थान समझते हैं और महावीर के धर्मानुगामी के नाते वैशालीमें और वैसे ही अन्य तीर्थों में बिहारमें मिलते हैं। उनके लिए बिहार और खासकर वैशाली मक्का या जेरुसेलम है। यह धार्मिक संबंध स्थायी होता है। कालके अनेक थपेड़े भी इसे क्षीण नहीं कर सके हैं और न कभी क्षीण कर सकेंगे। बल्कि जैसे-जैसे अहिंसाकी समझ और उसका प्रचार बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे ज्ञातृपुत्र महाबीरकी यह जन्मभूमि विशेष और विशेष सीर्थरूप बनती जाएगी। __हम लोग पूर्वके निवासी हैं। सोक्रेटिस, प्लेटो, एरिस्टोटेल आदि पश्चिमके निवासी। बुद्ध, महावीर, कणाद, अक्षपाद, शंकर, वाचस्पति आदि भारतके सपूत हैं, जिनका यूरोप, अमेरिका आदि देशोंसे कोई वास्ता नही । फिर भी पश्चिम और पूर्व के संबन्धको कभी क्षीण न होने देनेवाला तत्त्व कौन है, ऐसा कोई प्रश्न करे तो इसका जवाब एक ही है कि वह तस्व है विद्याका। जुदे-जुदे धर्मवाले भी विद्याके नाते एक हो जाते हैं। लड़ाई, आर्थिक खींचातानी, मतान्धता आदि अनेक विघातक श्रासुरी तत्त्व अाते हैं तो भी विद्या ही ऐसी चीज है जो सब जुदाइयों में भी मनष्य-मनष्यको एक दूसरेके प्रति अोदरशील बनाती है। अगर विद्याका संबन्ध ऐसा उज्ज्वल और स्थिर है तो कहना होगा कि विद्याके नाते भी वैशाली-विदेह और बिहार सबको एक सूत्रमें पिरोएगा क्योंकि वह विद्याका भी तीर्थ है । महात्मा गांधीजीने अहिंसाकी साधना शुरू तो की दक्षिण अफ्रीकामें, पर उस अनोखे ऋषि-शस्त्रका सीधा प्रयोग उन्होंने पहले पहल भारतमें शुरू किया, इसी विदेह क्षेत्र में । प्रजाकी अन्तश्चेतनामें जो अहिंसाकी विरासत सुषुप्त पड़ी थी, वह गांधीजीकी एक मौन पुकारसे जग उठी और केवल भारतका ही नहीं पर दुनिया-भरका ध्यान देखते-देखते चम्पारन-बिहारकी ओर आकृष्ट हुआ। और महावीर तथा बुद्धके समयमें जो चमत्कार इस विदेहमें हुए थे वही गांधीजीके कारण भी देखने में आए। जैसे अनेक क्षत्रियपुत्र, गृहमतिपुत्र और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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