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________________ १८ ६. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल इस वादस्थल में सारस्वतव्याकरण एवं पाणिनीयादि प्रमुख - प्रमुख व्याकरणों के आधार से चौदह स्वरों की स्थापना की गई है । किसी 'कूर्चालसरस्वतीबिरुदं मन्यमान' प्रतिवादीने अनुभूतिस्वरूपाचार्यकृत सारस्वतव्याकरण के 'अ इ उ ऋ लृ समाना:' और 'ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि' सूत्रों के अनुसार स्वर नव ही हैं, स्थापना की । उसे श्रीवल्लभ ने पञ्चविकल्पों की स्थापना कर, सारस्वत, पाणिनीयव्याकरण, कालाप, कातन्त्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, सिद्धान्तचन्द्रिका, पाणिनीयशिक्षा, आदि व्याकरण और अमरकोष, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, हलायुध, वर्णनिघण्टु आदि कोष तथा नरपतिजयचर्यादि ज्योतिष ग्रन्थों का आधार ले कर, सारस्वत व्याकरण की दृष्टि से ही ॠ और ऌ के दीर्घ का अभाव मानते हुए १४ स्वरों की स्थापना कर, प्रतिवादी के मत को निरस्त किया है । इसीलिये श्रीवल्लभ ने इस कृति का नाम भी चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल रखा प्रतीत होता है । जैसा कि इसकी अवतरणिका से स्पष्ट सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या । समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्चित् विपश्चित् परिपृच्छतीति ॥२॥ पुरातनव्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसारेण सदादरेण । तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय ॥३॥ यह वाद किस प्रतिवादी के साथ हुआ ? कहाँ पर हुआ ? किसकी सभा में या अध्यक्षता में हुआ ? इस कृति से ज्ञात नहीं होता । यह रचना गच्छनायक श्रीजिनराजसूरि (श्रीजिनराजसूरीन्द्रे धर्मराज्यं विधातरि प्र.प. १ ) के धर्मराज्य में हुई है और इसमें कवि श्रीवल्लभ ने उपाध्यायपद का प्रयोग किया है । श्रीजिनराजसूरि को आचार्यपद सं. १६७४ प्राप्त हुआ था । अतः इसका रचनाकाल १६७४ के पश्चात् का ही है । इसकी प्राचीन प्रति उपाध्याय श्री जयचन्द्रजी संग्रह, शाखा कार्यालय राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान बीकानेर में उपलब्ध है । ७ ओशो केशपदद्वयदशार्थी लेखक ने इस कृति में अनेकार्थी दृष्टि से ओकेश और उपकेश पद के पांच-पांच अर्थ निरूपित किये हैं । इस कृति की रचना उपकेश गच्छीय आचार्य श्रीसिद्धसूरिके आग्रह से सं. १६५५ में बीकानेर में हुई है । इसकी अनेकों प्रतियां बीकानेर, जयपुर, कोटा आदि भण्डारों में प्राप्त हैं । Jain Education International ८ खरतर पदनवार्थी ओकेशोप केशपदद्वयदशार्थी के समान ही इस कृति में 'खरतर' पद के लेखक ने नव अर्थ किये हैं । इसमें लेखक का नाम प्राप्त नहीं है । शैली की दृष्टि से इसे श्रीवल्लभ की कृति मान सकते हैं । यह कृति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी के साथ ही लिखी हुई प्राप्त होती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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