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________________ १५ होता है । तथापि कोषकार के इन शब्दों का अपने कोश में संकलन करने का कोई शास्त्राधार अवश्य रहा होगा और इसीलिये उसने इन्हीं शब्दों को अपनी रचना में विशेष रूप से संग्रहीत किया है । सौभरि कवि- संकलित इन विचित्र शब्दों का आधार लेकर उक्त श्रीवल्लभ गणि ने संग्रहान्तर्गत अन्तिमकृति 'विद्वत्प्रबोध' का गुम्फन किया है। इसमें उन्होंने सौभरि के संकलित क्वण, क्वाणा आदि बहुत से विचित्र शब्दों का सार्थक उपयोग कर दिखाने की चेष्टा है । यद्यपि है यह केवल कुतूहल --प्रदर्शक रचना, तथापि संस्कृत भाषा के शब्द सामर्थ्य का इससे बोध होने जैसा है । यह रचना अर्थक्लिष्ट एवं शुष्क-पद्य प्रबन्ध रूप है, इसलिये रचयिता ने स्वयं इसके क्लिष्ट शब्दों का अर्थ बोध कराने के लिये संक्षिप्त टिप्पण भी साथ में लगा दिये हैं । इसी 'एकाक्षरनामकोष संग्रह' पुस्तक की भूमिका लिखते हुये जैन पण्डित पं. लालचन्द्र भगवान् गान्धी ने (पृ. २३) पर लिखा है: "यह एक अपूर्व विशिष्ट विद्वद्गम्य, अद्भुत संस्कृत काव्य है । इस एकाक्षरीकोशसंग्रह में इसका सुसम्बद्ध आवश्यक स्थान है । इस संग्रह में चतुर्थ क्रमाङ्क में सौभरिकृत द्वयक्षरनाममाला प्रकाशित हुई है, उसमें प्रदर्शित विविध अर्थवाले संयुक्तवर्णों को प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रयुक्त कर इस चमत्कृतिकर रसिक काव्य की रचना कवि ने की है । संस्कृत साहित्य में यह अद्वितीय कहा जाय, ऐसा काव्य है। शायद ही इस पद्धति का अन्य काव्य विद्वानोंने देखा होगा ।" रसास्वादन के लिये हंसवर्णन में त्र का उपयोग देखिये:— ब - षोडशार्चिः स्तवनीय ! सन्मते ! युक् ! चतस्रः ककुभो त्रिलोकयन् । ब्रभा ! बकस्त्रस्त ऋधग् ब्रवीत्यरं, Jain Education International चोरभीतिं नृपते ! सुखच्छिदम् ॥ २७ ॥ द्वि. प. इस काव्य की एक मात्र प्रति १७ वीं शताब्दी की लिखित श्री अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में उपलब्ध है । पहिले यह काव्य जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार, सूरत से 'महावीर स्तोत्र' के साथ प्रकाशित हुआ था और पुनः राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से 'एकाक्षर नामशेष संग्रह' में प्रकाशित हुआ है । ४ सङ्घपतिरूपजी - वंश - प्रशस्ति, स्वोपज्ञ टिप्पणीसह यह एक वंश - प्रशस्त्यात्मक ऐतिहासिक लघुकाव्य है । इस काव्य की एकमात्र प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, क्रमांक १९२५० में प्राप्त है । प्रति अपूर्ण होने से इस काव्य का नाम कवि ने क्या रखा है, निर्णय नहीं कर सकते । काव्य के प्रारम्भ में कवि 'श्रीसंघाधिपरूपजीर्विजयताम्' ( पद्य ३) तथा 'भुवि श्रावकाधीश्वरो रूपजी स:' ( पद्य ४ ) का उल्लेख कर, पद्य पांचवें में रूपजी के पूर्वजों का वर्णन करने का संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि कवि श्रीवल्लभ संघपति रूपजी की प्रशंसा में यह प्रशस्ति काव्य लिखना चाहता है, परन्तु काव्य के प्राप्तांश में केवल रूपजी के पिता संघपति सोमजी एवं चाचा संघपति शिवाजी के कतिपय सुकृत कार्यों का ही वर्णन प्राप्त है । रूपजी का जन्म और विशिष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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