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________________ तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धथै, जिह्वापवित्रीकरणाय यद्वा । इति स्तुतः श्रीविजयादिदेवः, सूरिस्समं श्रीविजयादिसिंहैः ॥ अर्थात्-अन्य (खरतर) गच्छवाला कवि अपने गच्छ के आचार्य को छोड़कर तपागच्छ के आचार्य का चरित्र कैसे बनाता है, यह शंका विद्वान् मनुष्यों को न लानी चाहिए । क्यों कि आत्मसिद्धि किसे अभीष्ट नहीं है ?-सभी को इष्ट है। यह आत्मसिद्धि महात्माओं की स्तुति द्वारा होती है । और महात्माओं के लिये यह कोई नियम नहीं है कि वे अमुक पंथ या समुदाय में ही उत्पन्न हुआ करते हैं और यह भी कोई प्रतिबंध नहीं है कि अमक मतानुयायी अमुक ही महात्माओं की स्तवना करें। जैसे गंगा किसी के बापकी नहीं है-सबही उसका अमृतमय जल का पान कर सकते हैं-वैसे महात्मा भी किसी के जिस्टर्ड नहीं किये हुए हैं । सब ही मनुष्य अपनी अपनी इच्छानुसार उनके गुणगान कर उन्नति कर सकते हैं । इसलिये मैंने खरतरगच्छानुयायी होकर भी-अपनी जिह्वा को पवित्र करने के लिये तपागच्छ के महात्मा श्री विजयदेवसूरि ओर उनके शिष्य विजयसिंहसरि का यह पवित्र चरित्र लिखा है । इस विषय में किसी को उद्वेगजनक विकल्प करने की जरूरत नहीं है। वाह ! वाह ! । कैसी उदार दृष्टि और गुणानुराग!। यदि केवल इन्हीं ३ पद्यों का स्मरण और वर्तन हमारा आधुनिक जैन-समाज करे तो थोडे ही दिनों में यह उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हो सकता है । शासनदेव वह दिन शीघ्र दिखावें । (पृष्ठ ८२-८४)" उपाध्याय श्रीवल्लभ के उदार हृदय का परिचय देनेवाली एक घटना और भी है। इवेताम्बर जैनों में एक गच्छ है जिसका नाम है उपकेश गच्छ । श्रीवल्लभजी के समकालीन उपकेशगच्छनायक श्रीसिद्धसूरि ने चाहा कि 'उनके गच्छ के नाम की एक सन्दर और प्रामाणिक व्युत्पत्ति हो जाय।' इस पर उन्होंने श्रीवल्लभजी से आग्रह किया । इस पर उन्होंने इस आग्रह को स्वीकार कर "ओकेश-उपकेशपददयदशार्थी" की सं. १६५५ में विक्रमनगर (बीकानेर) में बडे विलक्षण ढंग से रचना की। इससे भो स्पष्ट है कि इनके हृदय में साम्प्रेदायिक भावों का लवलेश भी नहीं था, अपितु वे सहृदय एवं उदारमना थे । विहार और शिष्य-परम्परा इनके ग्रन्थों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि इनका बाल्यजीवन और प्रौढावस्था का समय नागोर, बीकानेर, जोधपुर, वलभद्रपुर आदि राजस्थान के नगरों में ही व्यतीत हुआ है । किन्तु विजयदेवमाहात्म्य और संघ पतिरूपजीवंशप्रशस्ति को देखते हये यह कल्पना की जा सकती है कि कवि श्रीवल्लभ वृद्धावस्था में सं. १६७५ के आसपास 'गुर्जर' देश पहुंचे और वहीं पर संघपतिरूपजीवंशप्रशस्तिकाव्य एवं आचार्य विजयदेव के चारित्र और तप से आकृष्ट होकर विजयदेवमाहात्म्य की रचना की । इसलिये बहुत संभव है कि इनकी वृद्धावस्था वहीं पूर्ण हुई हो और सं. १६८५ के पश्चात् कुछ ही वर्षों में इनका स्वर्गवास भो उसी 'गुर्जर' प्रदेश में हुआ हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002650
Book TitleHaimanamamalasiloncha
Original Sutra AuthorJindevsuri
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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