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प्रकाशकीय
आ. हरिभद्रसूरि विरचित शास्त्रवार्त्ता- समुच्चय का पुनर्मुद्रण करते हुए हमें अत्यंत हर्ष हो रहा है । प्रस्तुत ग्रंथ पिछले कई सालों से अनुपलब्ध था । भारतीय - दर्शन के अभ्यास के लिए यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी तथा नई दृष्टि प्रदान करनेवाला होने के कारण भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में इस ग्रंथ को समाविष्ट किया गया है । मूल ग्रंथ संस्कृत भाषा में रचित पद्यों में है जिस पर स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है । ग्रंथ की महत्ता देखते हुए १७वीं सदी के महान् न्यायाचार्य उपाध्याय यशोविजयजी ने नव्यन्यायानुसारी टीका भी रची है; किन्तु यह टीका अत्यन्त दुरूह है, अतः मूल ग्रंथ को सरलता से समझने के लिए एवं जिज्ञासुओं को ग्रंथ सुगम हो उसके लिए अनुवाद आवश्यक था । इसी भावना से प्रस्तुत ग्रंथ में प्रो. के. के. दीक्षितजी ने किया हुआ हिन्दी अनुवाद भी दिया है और साथ में विशिष्ट स्थलों पर विषय को सुस्पष्ट करने के लिए टिप्पण भी दिए गए हैं । बौद्ध दर्शन के तत्त्वसंग्रह की तरह ही आ. हरिभद्रसूरि ने प्रस्तुत ग्रंथ में भारतीय दर्शनों की समीक्षा की है । तथापि उन्होंने इस ग्रंथ में प्रत्येक दर्शन को समदृष्टि से देखा है और उसका समन्वय बहुत ही अच्छी तरह किया है तथा खण्डन की प्रवृत्ति को छोड़कर समभाव पूर्वक समझने की नई ही बात आचार्यश्री ने इस ग्रंथ में की है । इसी बात को दर्शाने के लिए प्रत्येक स्तबक के अन्त में समदर्शी आचार्य ने समन्वयात्मक भाव भी प्रदर्शित किया है । यह जिज्ञासुओं के लिए चिन्तनीय है और वर्तमान युग में यही भाव एवं विचारधारा भारतीय दर्शन की समन्वय प्रणालिका को विकसित कर सकती है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ अनूठा है । हमें आशा है कि प्रस्तुत ग्रंथ के. प्रकाशन से जिज्ञासुओं को लाभ होगा ।
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अहमदाबाद, २००२
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जितेन्द्र बी. शाह
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