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________________ ग्यारहवाँ स्तबक २१९ यदि कोई व्यक्ति अपने अभीष्ट उद्देश्य को ठीक प्रकार से जानकार ठीक प्रकार से क्रियाशील होता है तो वह उस उद्देश्य की सिद्धि कर ही लेता है। इसी आशय से बृहस्पति ने भी कहा है । सम्यक् प्रवृत्तिः साध्यस्य प्राप्त्युपायोऽभिधीयते । तदप्राप्तावुपायत्वं न तस्या उपपद्यते ॥६८४॥ ठीक प्रकार से की गई क्रिया को ही उद्देश्यसिद्धि का उपाय कहा जाता है; यदि कोई क्रिया उद्देश्य की सिद्धि न करा सके तो उसे उद्देश्यसिद्धि का उपाय कहना युक्तिसंगत नहीं । असाध्यारम्भिणस्तेन सम्यग ज्ञानं न जातुचित् । साध्यानारम्भिणश्चेति द्वयमन्योऽन्यसंगतम् ॥६८५॥ अतः जो व्यक्ति एक असंभव काम को हाथ में ले बैठता है उसे ठीक ज्ञान वाला नहीं कहा जा सकता और न उसे ही जो एक संभव काम को भी हाथ में नहीं लेता; वस्तुतः (ठीक) ज्ञान तथा (ठीक) क्रिया दोनों एक दूसरे के साथ चलते हैं । अत एवागमज्ञस्य या क्रिया सा क्रियोच्यते । आगमज्ञोऽपि यस्तस्यां यथाशक्ति प्रवर्तते ॥६८६॥ यही कारण है कि उसी व्यक्ति की क्रिया को क्रिया कहा जाता है जो शास्त्रों को जानता है और शास्त्रों को जानने वाला भी उसी व्यक्ति को कहा जाता है जो यथाशक्ति क्रियाशील बनता है। चिन्तामणिस्वरूपज्ञो दौर्गत्योपहतो न हि । तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये मुक्त्वाऽन्यत्र प्रवर्तते ॥६८७॥ जो व्यक्ति चिन्तामणि रत्न (कामनाएँ पूर्ण करने वाला रत्न) का स्वरूप जानता है वह दरिद्रता का आक्रमण होने पर किसी अन्य उपाय का आश्रय नहीं लेता अपितु उन अनेक उपायों में से ही किसी एक का आश्रय लेता है जो चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति कराने वाले हैं । न चासौ तत्स्वरूपज्ञो योऽन्यत्रापि प्रवर्तते । मालतीगन्धगणविद् दर्भे न रमते ह्यलिः ॥६८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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