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ग्यारहवाँ स्तबक
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उक्त आपत्ति हमारे मत पर इसलिए नहीं लागू होती कि एक वस्तु का शब्दग्राह्य रूप उसके इन्द्रियग्राह्य रूप से अतिरिक्त भी कुछ हुआ करता है; और इसलिए (उक्त उदाहरण में) यह शब्दग्राह्य रूप 'जलन उत्पन्न न करने वाला' ऐसा कुछ भी सिद्ध हुआ । हमारे मत की आधारभूत वस्तुस्थिति यह है कि हमें इस सब बात का साक्षात् अनुभव होता है तथा यह कि एक वस्तु भेद तथा अभेद दोनों धर्मों वाली स्वभावतः ही हुआ करती है।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि शब्दग्राह्य जलन इन्द्रियग्राह्य जलन से न तो सर्वथा असम्बन्धित है, न सर्वथा एकरूप । .
अपोहस्यापि वाच्यत्वमुपपत्त्या न युज्यते ।
असत्त्वाद् वस्तुभेदेन बुद्ध्या तस्यापि' बोधतः ॥६६९॥
प्रस्तुत वादी ने जो यह कहा था कि एक शब्द का अर्थ 'अपोह' (अर्थात् 'अन्य से भेद') हुआ करता है वह बात भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि 'अपोह' वस्तुओं से भिन्न कुछ नहीं—यहाँ तक कि विज्ञानाद्वैतवादी के मतानुसार भी 'अपोह' वस्तुरूप ही हुआ और वह इसलिए कि उसके मतानुसार भी 'अपोह' स्वग्राहक ज्ञान से अभिन्न रूप में ही-अतः ज्ञान सामान्य से अभिन्न रूप में ही जाना जाता है (जबकि विज्ञानाद्वैतवादी के मतानुसार ज्ञान वस्तुरूप होता ही है)।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब विज्ञानाद्वैतवादी के मतानुसार 'अपोह' ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने के कारण ज्ञानरूप है और ज्ञान एक वास्तविक वस्तु है तब 'अपोह' भी उसके मतानुसार एक वास्तविक वस्तु ही हुआ । जहाँ तक सौत्रान्तिक बौद्ध का सम्बन्ध है उसके मतानुसार 'अपोह' वस्तुरूप इसलिए हुआ कि 'अन्य से भेद' रूप 'अपोह' वास्तविक वस्तुओं में ही रहा करता है।
क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अन्यथैतद् विरुध्यते ।
अपोहो यन्न संस्कारो न च क्षणिक इष्यते ॥६७०॥
अन्यथा प्रस्तुत वादी अपने ही इस मत के विरुद्ध जा रहा होगा कि उत्पत्तिशील सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं, क्योंकि तब तो 'अपोह' न तो एक उत्पत्तिशील वस्तु माना जा रहा होगा और न एक क्षणिक वस्तु (और वह इसलिए कि तब तो 'अपोह' एक वस्तु ही नहीं माना जा रहा होगा)।
१. मूल-पाठ 'बुद्ध्यात्तस्यापि' अथवा ऐसा ही कुछ होना चाहिए ।
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